नई पुस्तकें >> रथ इधर मोड़िये रथ इधर मोड़ियेबृजनाथ श्रीवास्तव
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हृदयस्पर्शी कवितायें
सामाजिक चेतना के कवि - बृजनाथ श्रीवास्तव
तीन दशकों की नवगीत परम्परा में वरिष्ठ गीतकार आदरणीय बृजनाथ श्रीवास्तव जी का एक विशिष्ट स्थान रहा है। समाज को आईना दिखाते हुए उनके गीत मानवता के पोषक, सामाजिक रूढ़ियों के विरोधी और सर्वहारा वर्ग की विवशता के परिचायक हैं।
रथ इधर मोड़िये संग्रह का शीर्षक अपने विस्तार में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। समाज की, राजनीति की, भ्रष्ट मानवता की, घिसी-पिटी मान्यताओं, रूढ़ियों और कुरीतियों की अन्धी दौड़ को सकारात्मक दिशा में मोड़ने का संदेश देता हुआ उनका यह संग्रह समाजोपयोगी एवं अनुकरणीय है। वैचारिकी और चेतना का विस्तार इनके गीतों की प्रमुख विशेषता है। संग्रह के समग्र गीतों में प्रमुख रूप से तीन बातें सामने आती हैं। प्रथम वर्तमान समय में सामाजिक एवं राजनीतिक अव्यवस्था, नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के विरोध का स्वर। दूसरे प्रकार के गीतों में वे एक सचेतक की भूमिका में दिखाई पड़ते हैं।तीसरे प्रकार के गीत उनके कोमल मन के सहज उद्गार हैं, जहाँ प्रकृति, मानवीय सम्बन्ध और स्मृतियाँ उनके भावुक मन को अभिव्यक्ति देती हैं। वर्तमान समय की राजनीतिक स्थिति का क्षोभ उनके गीतों में पूर्ण संवेदना के साथ उभरकर आया है। लोकतंत्र के नाम पर सत्ता और जनता के बीच जो खाई है उसे भरने का जब ऊपरी प्रयास किया जाता है तो बुद्धिजीवी वर्ग आहत होकर कुछ ऐसे ही गीत लिखने को विवश हो जाता है।
लाल किले से बँटे बहुत हुए दिन/ रोटी पानी और हवा/
हुआ तपेदिक लोकतंत्र को/ नकली सारी बँटी दवा
बड़े बड़े वादे एवं आश्वासन की मदिरा पिला कर भोले भाले जनमानस को संतुष्ट करना और राजनीति की रोटी सेंकना -राजतंत्र के नुमाइंदों का धर्म बन गया है। आम आदमी की पीड़ा को महसूस करते हुए कवि कह उठता है-
लोकतंत्र में जनता गायब/ मूक खड़ा है प्रश्न/ कल जंगल की आवभगत में/ बहुत बड़ा था जश्न/ जनता हित की सात सुरों में/ बजा रहे थे बीन
आश्वासन और दिखावे का बोलबाला है नेताओं के आगमन पर जिस प्रकार सरकारी तंत्र नागरिक व्यवस्था को दुरस्त करने में जुट जाता है। उसका सचित्र उदाहरण इन पंक्तियों में मिलता है-
सुबह बूढ़ी सड़क की झुर्रियाँ भर कर /देह झाड़ी गई है/
और पहनाई उसे/ फिर श्वेत गोटेदार साड़ी गई है
पश्चिमी देशों का सीधा प्रभाव हमारे रहन-सहन संस्कृति एवं विचारधारा पर हावी हो गया है भारतीयता का क्षरण हो रहा है। यांत्रिकीकरण का विस्तार और नैतिक मूल्यों का पतन होता जा रहा है-
बिस्तर पर जापान बिछा है/ अलमारी में चीन/
खाने की मेजों पर बैठा /अमरीकी नमकीन
बृजनाथ जी के गीतों में समाज को जागृत करने, दिशा विहीन जनमानस को सामाजिक मूल्यों के अवमूल्यन के प्रति सचेत करने का सशक्त स्वर विद्यमान है। वह एक संचेतक की भूमिका में दिखाई देते हैं। इन गीतों में एक जागरूक नागरिक समाज को दिशा निर्देश देने का काम कर रहा है। वह स्पष्ट रूप से आवाहन करते हैं - रथ इधर मोड़िये - जहाँ समस्याएं हैं, मानवता पर घात लगाई जा रही है, सामाजिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। वे लिखते हैं-
छोड़िए मान्यवर बात अपनी पुरानी वही छोड़िए/रथ इधर मोडि़ए
धर्म जाति और कुरीतियों के नाम पर देश को विखंडित होने से बचाने के लिए वे लिखते हैं -
जातियाँ धर्म तोड़ा किए देश को/मत अधिक तोड़िए/रथ इधर मोड़िये
समाज में फैली अव्यवस्था, असंतुलन और अनाचार के प्रति एक संवेदनशील व्यक्ति के अंतर में प्रश्न खड़े करते हैं कुछ गीत -
हरे भरे खेतों में कहाँ गए नाज/स्वर्ण विहग भिक्षुक हैं/बोलो क्यों आज
सत्ता पक्ष से वे सीधा प्रश्न कर उठते हैं -
आखिर क्यों डरते हैं तुमसे सब लोग/ सच-सच बतलाना नृप/
चलना मत चाल / रहनुमा देश के झुग्गियाँ क्यों जली/ सोचिये तो जरा
इस संग्रह के गीतों में मानव मन के कोमल भावों सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों प्राकृतिक दृश्यों के कुछ ऐसे स्थल भी विद्यमान हैं जो पाठक को आनन्द से भर देते हैं।
संग्रह के प्रथम गीत में जब समाज की सबसे छोटी इकाई 'परिवार' कवि को एक मन्दिर के समान प्रतीत होता है। जिस प्रकार भक्त मन्दिर प्राँगण में पहुँचकर भावविभोर हो उठता है। उसी प्रकार कवि को परिवार का सान्निध्य अनुभूतियों से भर देता है- सच कहें घर हमेशा मुझे एक मन्दिर लगा
साथ ही -
अब तो मंतर जैसी लगतीं/ बाबा की वह बातें/ प्यार भरी सौगातें
सुखद क्षणों की स्वप्निल स्मृतियाँ पुनः मन को हरा-भरा कर जाती हैं।
दिन गई गन्ध के /आज भाने लगे गुनगुनाने लगे/
पूर्व स्मृतियाँ कुछ इस तरह भावों की मंजूषा खोलने लगती हैं.
अल्हड़ हँसी हँस रही इन पर/ विद्यालय की राह/
तीरथ मन्दिर दद्दू भौजी /और पिता की बाँह/ याद किए कमसिन
प्रकृति और पर्यावरण को बचाए रखने का संदेश देते हुए उनके कुछ गीत मानव सृष्टि को बचाने का प्रयास करते हैं।
यदि न चेते तो/ हरे दिन बीत जायेंगे/ नहीं घनमीत आयेंगे/
हो रहे हैं छेद/ नभ ओजोन पर्तों में/छिप रहे नाराज बादल
श्याम गर्तो में/ ये पपीहे फिर कहाँ/ जल गीत गायेंगे
प्रकृति का सानिध्य पाने की कामना करते हुए कवि कहता है-
साथ में तुम रहो देव वन घाटियों/ हो इधर नर शिखर हो नरायन उधर/
बीच में हो अलकनंदिनी की लहर
इसी प्रकार -
बस यही कामना पथ उजाले मिलें/ राह के पेड़ फल छाँव वाले मिलें
कुछ प्राकृतिक दृश्य उनके गीतों में अत्यन्त प्रभावशाली बन पड़े हैं। जैसे 'कौन दे सलाम' 'गुलमोहर के बदन' 'फिर नदी ने कहा' जैसे गीतों में। जादुई चीड़ वन का एक सुरम्य वातावरण और बासन्ती इतरा रहे जादुई चीड़वन
देखते-देखते बर्फ के सब झिंगोले फटे/
और चंचल पहाड़ी पवन के हिंडोले घटे/
आज रसवंती बिखरा रहे चीड़वन
असंतोष, खिन्नता और नैराश्य पूर्ण वातावरण के बीच भी उनका आशावादी मन अभी हार नहीं मानना चाहता -
हिम्मत बाँधो लौटेंगे फिर/दिवस गए जो रूठ/बुधइया जल्दी-जल्दी लूट
इस प्रकार विहंगम दृष्टिपात करने पर रथ इधर मोड़िये के गीतों में अनैतिक राजनीति, सामाजिक व्यवस्था नैतिक मूल्यों का क्षरण, सामाजिक विघटन की समस्याएं, मानवता पर घात, अवसाद, नैराश्य क्षोभ से ग्रसित मानव समाज को जागरूकता का संदेश देते आदरणीय बृजनाथ श्रीवास्तव जी के गीत पाठक को मानवीय कर्तव्य बोध का पाठ पढ़ाते हैं। मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि बृजनाथ श्रीवास्तव जी का यह संग्रह 'रथ इधर मोड़िये' साहित्य के क्षेत्र में इतना अधिक चर्चित एवं प्रशंसित हुआ कि उसके द्वितीय संस्करण की आवश्यकता हुई। मैं उनकी इस सफलता एवं द्वितीय संस्करण के प्रकाशन की अग्रिम शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ।
- डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव
कानपुर
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