नई पुस्तकें >> रथ इधर मोड़िये रथ इधर मोड़ियेबृजनाथ श्रीवास्तव
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हृदयस्पर्शी कवितायें
अनुगूँज
रथ इधर मोड़िये के अलावा और कहने को बचा ही क्या है आज सभ्य होकर अंतरिक्ष तक दौड़ लगाने वाले लोक मानव के पास, क्योंकि आदिम युग से चली आ रही समाज-व्यथा को चरितार्थ करती लोकोक्ति कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, आज भी कायम है। हाँ, इस विद्रूप लोकोक्ति के साथ-साथ हमारे पास एक प्रकृति पोषित स्वर्णिम अतीत रहा है। जहाँ एक ओर जेठ, बैशाख की तपती दुपहरी में तलवों को जलाती भुलभुल थी, तो अमराइयों की गोद में पले रचे बसे गाँवों की छाया भी तो थी, मेघों की रसवन्ती फुहारें भादों की घनघिरी कज्जलकार रातें, सावां, कोदो और मकई के खेतों में कलरव करते कीर कुलों के झुण्ड, नृत्यमग्न शिखिनकुलों की काकली, शरद की निष्कलुष जुन्हाई, कातिक की काली अमावस के साथ दिग्दिगन्त को उज्जवल करती दीपमालिकायें भी तो थीं, यदि हॉड़-हॉड़ तोड़ती पूस की कँपकपाती ठण्ड भरी रातें थीं, तो होली के रंगों की फुहारें और और फागुन में युवा होती फगुनाहट, चैत की आम्र मंजरियों की मधु सुवास, संयुक्त परिवारों में भरा पूरा माँ का दुलार, दद्दू, दादा और भौजाइयों की स्नेहमयी पुचकार और डाँटें भी तो थीं, यदि राजस्थान में रेतीली आँधियाँ थीं तो, हिमालय की हरी-भरी वादियाँ उत्तुंग शिखरों वाली अधित्यकायें एवं उपत्यकायें भी तो थीं, अट्टहास करती सागरों की लोल लहरियां भी तो थीं और हाँ, आपस में भाईचारा, अपनापन, सहयोग, परोपकार, सहिष्णुता, प्रेम, त्याग इत्यादि सद्गुणों से भरापूरा एक ग्राम्य समाज भी तो था।
इसी धूप-छाँव और सुख-दुख का लेखा-जोखा समेटे मैंने वर्ष 2004 में अपना प्रथम नवगीत संग्रह दस्तखत पलाश के आपके हाथों सौंपा था किन्तु इतिहास गवाह है कि पीढ़ियाँ बदल गईं, चेहरे बदल गये, जलवायु बदल गई, परिवेश बदल गया, अर्थव्यवस्थाएँ बदल गईं किन्तु गन्धों के दावे, वासन्ती समझौते और उन समझौतों पर गन्धहीन पलाशी दस्तखत आज भी ज्यों के त्यों हो रहे हैं और इस खाते में दिन पर दिन जमा होता रहा है सम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, भाषावाद, भाई-भतीजावाद, घोटाले, लूट, अपराध, दायित्वहीनता, सत्वर मशीनीकरण, कम्प्यूटरीकरण, वैश्वीकरण, पूँजी के निजीकरण, नगरों के सुरसामुखी विस्तार, जनसंख्या विस्फोट, नशाखोरी, बेरोजगारी, भौतिकता की अन्धी दौड़ एवं विभिन्न प्रकार के प्रदूषण। आज परिवार, नागरिकता की प्रथम पाठशाला होने के गौरव से फिसलकर मातृत्व की क्रेच, किटी पार्टी और शापिंग माल में कहीं गुम होकर रह गया है। समाज पर नियंत्रण करने एवं नैतिकता की शिक्षा देने वाले धर्म, विद्यालय, परम्परायें लाभकारी व्यवसाय से जुड़ गये। कानून अपराधियों से साँठ-गाँठ कर जनता का शोषण करने का उपकरण बन गया। सर्वत्र भ्रष्टाचार और शोषण सामाजिक मूल्य के रूप में स्वीकार किए जाने लगे हैं। देश जिम्मेदार व्यक्तियों की दायित्वहीनता के विषम दौर से गुजर रहा है। यहाँ कुयें ही में भाँग पड़ी है। ऐसे वर्तमान से जूझते हुए रथ इधर मोड़िये के गीत यह पूछने को मजबूर हो उठते हैं कि आखिर ये परिन्दे डाल पर लटके कहाँ जायें? गीत उजली भोर के ये किस तरह गायें?
किन्तु लोकमत है कि समाज में समानता, भाईचारा, सहयोग, सहिष्णुता, प्रेम, त्याग एवं अपनापन हो। सभी को साँस भर शुद्ध प्राणवायु, भूख भर शुद्ध भोजन, प्यास भर शुद्ध पानी, हाथों को काम, रहने का ठिकाना मिले। लेकिन दिन पर दिन विकृत होते समाज में अभावग्रस्त किंकर्तव्यविमूढ़ लोग आखिर कब तक मौन का साथ देते। वे आज कहने को मजबूर हो गये हैं कि
छोड़िये मान्यवर/बात अपनी पुरानी वहीं छोड़िये/रथ इधर मोड़िये।
अब आप ही निर्णय कर सकेंगे कि स्वर्ण विहग होने की कामना लिए रत्नगर्भा से उपजे ये गीत-शब्द दिग्भ्रमित एवं अनियोजित विकास के रथ को एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने एव उसमें सर्वकल्याण एवं नैसर्गिक आनन्द की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित होने वाले मार्ग की तरफ मोड़ने के उपक्रम में कितना सफल हो सके हैं।
- बृजनाथ श्रीवास्तव
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