लोगों की राय

नई पुस्तकें >> सुहबतें फ़क़ीरों की

सुहबतें फ़क़ीरों की

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15685
आईएसबीएन :978-1-61301-701-2

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

रक़ीब की ग़ज़लें

प्रिव्यू के लिये यहाँ क्लिक करें

बस इतना फ़साना है...

यक़ीन मानिये मैं एक पाठक और अदब नवाज़ हूँ जो काव्य गोष्ठियों और नशिस्तों में दरियाँ और चटाइयाँ बिछाते/बिछवाते और कवि सम्मेलनों और मुशायरों में कुर्सियाँ लगाते/लगवाते थोड़ी बहुत तुकबंदी करने लगा हूँ. पिंगल शास्त्र और अरूज़ से दूर-दूर तक मेरा कोई सरोकार नहीं है, हाँ इतना ज़रूर है कि गुनगुना कर पढ़ने की आदत है सो गाहे-बगाहे मिसरे पर ठीक-ठाक मिसरा लग जाता है.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मोहनलालगंज विकास खंड परिसर के सरकारी आवास में कानपुर के शुक्ल परिवार से स्मृतिशेष श्याम बिहारी और स्मृतिशेष सुभद्रा देवी के पुत्र स्मृतिशेष कृपाशंकर और दीक्षित परिवार से स्मृतिशेष पंडित चन्द्रिका प्रसाद और स्मृतिशेष चंद्रभागा की पुत्री स्मृतिशेष लक्ष्मीदेवी के घर में अप्रैल 04, सन् 1961 को मेरा जन्म हुआ. सनातन संस्कृति के धार्मिक वातावरण में मेरी परवरिश हुयी, घर में वेद, पुराण और हिंदी साहित्य के साथ-साथ उर्दू शायरी की किताबें भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थीं. पिताजी पेशे से सिविल इंजीनियर होने के साथ-साथ देवी और शिव भक्त तथा एक अच्छे तैराक और कवि भी थे, उर्दूलिपि (नस्तलीक़) से भी वाक़िफ़ थे उर्दू शायरी की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे. पिताजी की सरकारी मुलाज़मत की वजह से ज़िंदगी का अहम् हिस्सा ख़ाना-बदोशी में गुज़रा, जिनमें उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विभिन्न जिले जैसे लखनऊ, फ़ैज़ाबाद, सुल्तानपुर, गोंडा, बस्ती, कानपुर, बहराइच, झाँसी, बाँदा, मुनसियारी पिथौरागढ़ खटीमा नैनीताल प्रमुख हैं.

कानपुर में मेस्टन रोड से बिसात-ख़ाना होते हुए नई चौक जाने वाली सड़क पर एक घर आता है, 42/3, मखनिया बाज़ार, यही चार मंज़िला इमारत मेरी ननिहाल हुआ करती थी. बचपन और युवावस्था की तमाम यादें इस घर से वाबस्ता हैं. संयोग से इसी घर से मैं 1965 में पहली बार स्कूल गया और 1986 में नौकरी की शुरुआत भी हुई. तक़रीबन एक किलोमीटर लम्बी सड़क का ये मोहल्ला एक मुस्लिम बहुल बस्ती है जिसमें मुश्किल से 4-6 हिन्दू परिवार रहते थे. एक घर छोड़ कर मस्जिद, पांच-छह घर छोड़ कर शिव मंदिर और ठीक सामने पार्क में मदरसा था. पांच वक़्त की अज़ान और सुब्ह-शाम आरती की घंटियों की आवाज़ का असर दिल-ओ-दिमाग़ में कुछ इस तरह घर कर गया कि मुझे पूजा, अर्चना और नमाज़ में कोई फ़र्क़ महसूस ही नहीं होता.

Next...

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai