नई पुस्तकें >> कैकेयी का परिताप कैकेयी का परितापत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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महारानी कैकेयी की गाथा पर खण्ड-काव्य
दो शब्द
सुधी पाठक वृंद,
नमस्कार!
प्रस्तुत काव्य 'कैकेयी का परिताप' उस समय लिखा गया जब पूरा विश्व करोना वायरस महामारी से जूझ रहा था और लॉक डाउन की स्थिति में चल रहा था। इस काव्य को लिखने की प्रेरणा मुझे रामानंद सागर कृत टीवी सीरियल 'रामायण' से मिली। चूँकि लॉकडाउन में सिर्फ घर में ही बैठे रहने के अलावा और कोई काम नहीं था, एक दिन मैं उड़ीसा स्थित रेवेंशा विश्वविद्यालय, कटक की हिंदी विभाग की प्रोफेसर डॉ. अंजुमन आरा जी से बातचीत कर रहा था और बातों के क्रम में उन्होंने मुझसे पूछा कि इस समय क्या कर रहे हो? मैंने उत्तर दिया कि लॉकडाउन में क्या करूँगा, बस घर के अंदर ही रहता हूँ। उन्होंने पूछा, 'तुम्हारी लेखनी कैसी चल रही है?' मैंने कहा- महाशया, लेखनी इस समय शान्त है और कुछ भी लिखना-पढ़ना नहीं होता है। उन्होंने कहा-चुप होकर क्यों बैठे हो, तुम तो लेखक हो, कुछ लिखना आरंभ करो। मैंने उनकी बात को आदेश माना और रामायण का उस समय का दृश्य देखने लगा जब श्री राम के वन-गमन के बाद राजा दशरथ की मृत्यु और श्री भरत का अयोध्या आने पर अपनी माता के गृह सबसे पहले जाना और परिवार का समाचार पूछने का था।
माता कैकेयी ने उन्हें पिता की मृत्यु का समाचार दिया और बताया कि श्री रामचन्द्र, विदेह नंदिनी सीता और लक्ष्मण के सहित वन को चले गए हैं। श्री भरत ने पिता की मृत्यु और श्री राम के वन गमन का कारण पूछा तो माता कैकेयी ने बताया कि श्री रामचन्द्र जी का राज्याभिषेक महाराज दशरथ द्वारा करने की इच्छा से आयोजन करना और मुझे इसकी भनक तक न मिलने से मैं आश्चर्यचकित हुई कि इतने बड़े आयोजन के बारे में महाराज ने मुझसे छिपाया और यह समाचार मुझे मेरी दासी मन्थरा के द्वारा प्राप्त हुआ। मन्थरा द्वारा समाचार मिलने पर भी मैं बहुत खुश हुई और एक कीमती हार गले से उतारकर उसे पारितोषिक स्वरूप दिया। पर, मन्थरा पारितोषिक पाकर प्रसन्न नहीं हुई और मुझसे कहा कि यदि राम राजा बन जाएगा तो तुम्हारी और तुम्हारे पुत्र की स्थिति क्या होगी? इस तरह समझा कर उसने मुझे प्रेरित किया कि मैं देवासुर संग्राम के समय महाराज से पाए दो वर उनसे माँग लूँ। उनमें से एक वर राम का चौदह वर्ष का वनवास और दूसरा भरत का राज्याभिषेक। पुत्र, मैंने तुम्हारे हित की रक्षा के लिए ही यह दो वरदान राजा से माँगे थे, पर जब राम वन जाने लगे तो महाराज उनका वियोग सहन नहीं कर सके और मृत्यु का वरण कर लिया। पुत्र, तुम्हारे लिए अयोध्या का राज्य अकंटक हो गया है। तुम पिता की अंत्येष्टि करने के बाद गुरु और मंत्रियों की सहायता से राज्य का भार ग्रहण करो और आनंद से राज्य करो। पुत्र चौदह वर्ष का वनवास मैंने रामचन्द्र के लिए महाराज से इसलिए माँगा क्योंकि शास्त्रों और उपनिषदों के अनुसार सात वर्ष में मनुष्य के शरीर का रक्त बदल जाता है और पुरानी बातों को गुरुत्व नहीं देता है।
मित्रो, राजकुमार भरत ने यह सुनकर माता कैकेयी को खूब खरी-खोटी सुनाई और गुरु तथा मंत्रियों से मंत्रणा के बाद पिता की अंत्येष्टि क्रिया समाप्त की और फिर श्री राम को अयोध्या वापस लाने के लिए वन में जाने का विचार सबके सामने रखा। सभी ने कहा कि अब तो उन्हें अकंटक राज्य मिल गया है, अतः, राज्याभिषेक करा कर राजगद्दी पर बैठें और राज्य करें। पर भरत ने कहा, 'हमारी कुल परंपरा के अनुसार सबसे बड़ा भाई ही पिता के बाद गद्दी का अधिकारी होता है। अतः, राम ही अयोध्या के राजा हैं, और हम सब मिलकर उन्हें मना कर वापस लाएंगे। अतः आप सब वन चलने की तैयारी करें और श्री राम जहाँ भी होंगे, वहीं से उन्हें वापस लाया जाएगा।'
मित्रो, पति की मृत्यु के बाद महारानी कैकेयी के हृदय का गुबार कमजोर तो पड़ गया था, पर, अब भी उनकी आंतरिक इच्छा थी कि भरत ही अयोध्या का राजा बने। वन-यात्रा करने से पहले भरत ने माता से प्रश्न किया कि आपने ऐसा क्यों किया? जबकि आप श्री राम को मुझसे ज्यादा स्नेह करती थीं। तब महारानी ने बताया कि पुत्र, 'जब तुम्हारे पिता ने मेरे पिता कैकय नरेश स्वर्गीय महाराज अश्वपति से मेरा हाथ माँगा था तो उस समय मैं तरुणी थी, और तुम्हारे पिता आधी से ज्यादा उम्र पार कर चुके थे। इसीलिए मेरे पिता ने कहा-कि महाराज, आपकी तो अनेकों रानियाँ हैं, और मेरी पुत्री अब आपके यहाँ जाएगी तो उससे जो संतान पैदा होगी उसका स्थान तो आपके राज भवन में कहीं नहीं होगा। अतः यदि आप मुझे यह आश्वासन दें कि मेरी पुत्री से जो पुत्र होगा वही राज्य का अधिकारी होगा तो मैं सहर्ष अपनी पुत्री का हाथ आपको सौंप सकता हूँ। इस पर तुम्हारे पिता ने, मेरे पिता को आश्वासन दिया था कि मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा वही अयोध्या की गद्दी का हकदार होगा। किंतु, जब तुम ननिहाल में थे, उसी समय तुम्हारे पिता ने राम का राज्याभिषेक करने का निर्णय लिया और मुझे इस समाचार से अंधेरे में रखा। मुझे उनके इस कार्य से बहुत क्रोध आया और प्रतिशोध लेने के लिए ही उनसे देवासुर संग्राम में दिए दोनों वर माँगे और उन्हें पूर्ण करने की जिद पर अड़ गई। पुत्र अब जब तुम्हें राज्य नहीं चाहिए, और तुम्हारी इच्छा है कि राम ही अयोध्या के राजा बनें, और उन्हें मनाने के लिए तुम वन जाना चाहते हो, तो तुम्हारे साथ मैं भी वन में चलूँगी और उन्हें मना कर वापस ले आने की कोशिश करूँगी। मैं तुम्हारे साथ ही चलूँगी और अपने हृदय का पश्चाताप उनके सामने प्रकट करूँगी।'
मित्रों, 'कैकेयी के परिताप' के विषय में रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रकाश डाला है और हिंदी साहित्य में राष्ट्र कवि स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त ने तथा कवयित्री श्रीमती रिंकू पटेल ने विशद रूप से प्रकाश डाला है। अतः इस काव्य को आपके हाथों में समर्पित करते हुए मेरा निवेदन है कि महारानी 'कैकेयी के परिताप' को सत्य मानें और माता कैकेयी को कुल्टा, राक्षसी, गर्विणी इत्यादि न समझ कर उनका नाम समाज में आदर के साथ लें, ताकि माता और मातृ ममता पर कलंक न लगे।
- त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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