उपन्यास >> समस्या पूर्ति समस्या पूर्तित्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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समाजिक उपन्यास
दो शब्द
प्रस्तुत उपन्यास की भित्तिभूमि संस्कृत महाकाव्य जानकी-हरणम्' में वर्णित भूमिका के प्रसंग के अनुसार ही की गई है। इस महाकाव्य की भूमिका लिखते हुए के. धर्मारावस्थविर, प्रिंसिपल, विद्यालंकार (ओरिएंटल) कालेज, पोलियागोड़, केलानिया ने, एक दुखद घटना का वर्णन, जो महाराज कुमार दास (लंका नरेश) के जीवन में घटी, किया है। कथा इस प्रकार है“सम्राट कुमारदास एक ऐसी स्त्री के घर जाया करते थे जिस पर आसक्त थे। एक दिन उन्होंने घर की दीवार पर निम्नलिखित पंक्ति लिख दी-
“पद्मात् पद्मनोद् भूतम् श्रूयते न च दृश्यते
(यह सुना गया है किन्तु देखा नहीं गया है कि एक कमल से दूसरा (नया कमल) उत्पन्न होता हो)। और इन पंक्तियों के नीचे उन्होंने इस बात के लिए सूचना भी लिख दी कि जो कोई भी इन पंक्तियों को पूरा करेगा उसे पुरस्कार दिया जायगा।
संयोगबश कालिदास जो उन दिनों उस सम्राट से मिलने सिंहल आए हुए थे और जिनकी रचनाओं को भारत में सम्राट ने देखा था, उसी सौके घर में संध्या के समय टिक गए और दिवार पर उन पंक्तियों को अकस्मात दस्त कर उसकी पूर्ति इस प्रकार की -
‘बाले तव मुखाम्भोजात् त्वन्नेवेन्दीवर द्वयम्”
(हे युवती, तुम्हारे मुख कमल में तुम्हारी ही नीली आँखों के दो इंदीवर खिले हुए हैं।)
और हुआ यह कि जिस स्त्री के लिए प्रशंसा रूप में ये पंक्तियाँ लिखी गई थीं, उसने पुरस्कार पाने की आशा में कालिदास को उस रात्रि मार डाला और उनका शव छिपा दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब सम्राट उसके यहाँ गए तो उसने उन दो पंक्तियों की पूर्ति को अपनी बनाई कृति कहकर पुरस्कार मांगा। किन्तु सम्राट कुमार दास को उन पंक्तियों के पीछे कोई सच्चा महाकवि दिखालाई दिया। इसलिए उसने उस स्त्री पर विश्वास नहीं किया, और उसे असली रचनाकार को बतलाने के लिए विवश किया। धमकी देने पर उस हत्या करने वाली स्त्री ने अपने जुर्म को स्वीकार कर लिया। और जब कालिदास का शव सामने लाया गया तब सम्राट के दुख और क्रोध की कोई सीमा न रही। उसने उस प्रख्यात कवि की समुचित अंत्येष्टि की आज्ञा दी और जब चिता दहकाई गई तब वह उदारचरित सम्राट दुख से आक्रांत हो उछल कर अग्नि में कूद पड़ा और ज्वाला ने उसे कवि बंधु के साथ तुरंत भष्म कर डाला। उसके बाद सम्राट की पाँचों रानियाँ भी तुरन्त जल मरीं।
सिंहल द्वीप में प्रचलित रीति के अनुसार उन सब के सात स्मारक बनबाये गए और दाह-स्थलों पर सात बट वृक्ष लगा दिए गए। कहा जाता है कि उन दिनों सम्राट कुमार दास मातर में रहा करते थे और यह दुखद घटना भी वहीं घटी थी। नगर की सीमा के भीतर ही एक ऐसा स्थान है जिसे सात बो-वृक्षों की वाटिका, हठोदिवट्ट कहते हैं। परंपरागत किंवदंती के अनुसार ये दुखद घटनायें वहीं घटी थी।” (पृष्ठ-306-307)
इस कहानी की सत्यता कितनी दूर तक विश्वसनीय है, यह तो मैं नहीं कह सकता। मैंने तो बस साहित्य जिज्ञासु के नाते जब इस कहानी को पढ़ा तो, ऐसा लगा कि इस कहानी को यदि वर्धित रूप से लिखा जाय तो एक उत्तम कथानक तैयार हो सकता है, और उसी भावना के परिणामस्वरूप इस उपन्यास ‘समस्यापूर्ति की उद्भावना हुई। चूँकि उपन्यास में तथ्य तो कुछ ही पंक्तियों के थे, पूरे उपन्यास का प्रणयन करने के लिए मुझे कल्पना का ही सहारा लेना पड़ा, अतः यदि पाठकों को कहीपर कोई शंका या अरूचिकर तथ्य पढ़ने को मिलें, तो उसकी जिम्मेदारी मैं स्वयं पर ले लूँगा और क्षमायाचना करूँगा।
उपन्यास में आए भारतीय महाकवि कालिदास का नाम इस उपन्यास का एक उदात्त चरित्र बन पड़ा है। जैसा कि विद्वन्मंडली जानती है, हमारे देश में अनेक कालिदास हुए हैं, यह निश्चित रूप से कहना कि अमुक कालिदास ही इस रचना के पात्र हैं, मुश्किल हैं। अतः मैंने उन्हीं कालिदास को इस उपन्यास में अंतर्भुक्त किया है जिनकी रचनाएँ मेघदूत इत्यादि है, जो उज्जयिनीनरेश स्कंदगुप्त विक्रमादित्य के निर्देश पर कुछ दिन कश्मीर पर शासन करने के पश्चात उज्जयिनी नरेश का वियोग न सह पाकर पुनः उज्जयिनी चले आए और महाराज के दरबारी रत्नो की श्रृंखला में रहकर दरबार की शोभा बढ़ाई। महाकवि कालिदास और सिंहल-नरेश कवि कुमार दास की मुलाकात भारत में ही हुई होगी, जिस आशय की सूचना महाकवि 'प्रसाद' जी के नाटक स्कंदगुप्त से भी मिलती है। कारण महाकवि 'प्रसाद' ने भी कुमार दास (धातुसेन) का वर्णन स्कंदगुप्त नाटक की भूमिका में किया है। अतः यह कोई आश्चर्य नहीं कि महाराज कुमार दास अपनी काव्य सुलभ प्रियता के कारण एक ऐसे कवि से मुलाकात करने की इच्छा की हो, जिसकी रचनाओं की रश्मियाँ उन दिनो सारे भारत वर्ष को अपनी गरिमा से ओत-प्रोत कर रही थीं।
उपन्यास को कथा-परिधि में रखने का भरसक प्रयास मैंने किया है और सावधानी वरतने का भी कि कोई अनैतिहासिक तथ्य इसमें समाहित न हो।
संस्कृत महाकाव्य ‘जानकी हरणम्' की सामग्री उपलब्ध कराने में मेरे अनुज श्री राजकुमार तिवारी एम.ए. (अंग्रेजी) बी.एड.,जो डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल पटना में व्याख्याता के रूप में कार्यरत हैं, का विशेष प्रयास रहा है, जिन्होंने पूरा का पूरा महाकाव्य ही मेरे पास भेजा और आवश्यकीय सामग्री खोजने का परामर्श दिया। अत: मैं उनके प्रति कृतज्ञता जनाए बिना नहीं रह सकता। उनका सत्प्रयास हमेशा ही यही रहा है कि मैं यदि कर सकूँ तो अच्छे साहित्य का ही सृजन करूँ और माँ सरस्वती को नैवेद्य स्वरूप अर्पण करूँ। शबनम पुस्तक महल के परामर्शदाता डॉ० सुमन को भी मैं धन्यवाद देना चाहूँगा जिनकी सदयता से ही इस पुस्तक का प्रकाशन संभव हो सका है।
अंत में मैं पाठकों से यही प्रार्थना करूँगा कि चूँकि कथानक की सामग्री ऐतिहासिक होते हुए भी, उस विशेष स्थान को मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा है, सिर्फ स्थविर जी की भूमिका के आधार पर ही उल्लिखित तथ्यों की जानकारी प्राप्त हुई है, उपन्यास को सिर्फ मनोविनोद की भावना से ले, न कि ऐतिहासिकता की भावना से।
- त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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