कविता संग्रह >> पुथू पुथूत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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प्रेम की अपनी परिभाषा होती है। वह प्राणियों में आनंद का संचार करता है, और...
जब से तुम आयीं धरा पर,
कह नहीं सकता कि प्रिय,
कौन सा कोना हृदय का मेरे,
भर गया है।
कुछ कथा कुछ व्यथा
पुथू कोई काव्य नहीं। इसमें कविता को कल्पना की डोर पर चढ़ाया नहीं गया है। इसमें तो यथार्थ की कड़ी भूमि पर जन्म लिए उस पौधे की पहचान है, जो अपने ही रस से जन्म लेता है, बढ़ता है, हरा भरा रहता है और नीचे की नमी सूख जाने पर स्वत: ही सूख भी जाता है। दुख और वियोग के लिए किसी पूर्व योजना को कायान्वित नहीं किया जाता, वह तो स्वयं ही हृदय के एक भाग के दुखद परिवेश की ऊर्जा पाकर पल्लवित होते हैं। उनका पल्लवन किसी को आनंद तो नहीं दे सकता, हाँ निर्मूली बेल की तरह जिस मनुष्य पर चढ़ जाते हैं, उसे समूल नष्ट जरुर कर देते हैं। अर्थात वह जीवन नष्ट प्राय ही हो जाता है। फिर तो उसे यह संसार व्यर्थ सा दीखने लगता है और मनुष्य वियोग जनित दुख की पोटली बाँधे हुए ही इधर-उधर भटकता रहता है, अपनी साँसों के चलने तक।
प्रेम की अपनी परिभाषा होती है। वह प्राणियों में आनंद का संचार करता है, और प्राणी मात्र को सुख से सराबोर करता रहता है। किन्तु जब उस प्रेम में कहीं छिद्र हो जाता है, तब तो उसके अंदर में भरा हुआ रस - रक्त रिसने लगता है और पूरा घट खाली हो जाने पर प्रेमी को अपने जीवन की लीला समाप्त ही करनी पड़ती है।
प्रेम की दो कोटियाँ होती हैं। एक तो शरीरी अर्थात शरीर का शरीर से आदान प्रदान और दूसरी आत्मिक होती है। मन उस प्रेम को अनुभूत करता है और हृदय की तरफ बढ़ा देता है, हृदय जिसे संचित करके अपने प्रकोष्ठ में रख लेता है और हर समय उसके माध्यम से आ होता रहता है। इस प्रेम में वासना का लेश भी नहीं होता, क्यों कि हर कोई चाहत नहीं होती, कोई लोभ नहीं होता, कोई स्वार्थ नहीं होता। बस प्रेम के झरने में नहा कर प्रेमी हर समय मस्त रहता है, सारे संसार को पेश मय देखते हुए।
हार्दिक प्रेम में एक बड़ी असुविधा रहती है कि यदि उस प्रेम में कोई व्याघात घट गया तो मनुष्य को भयानक परिणामों से हो कर गुजरना पड़ता है और उस स्थिति में उसके अंदर से एक टीस भरी वाणी, आह से भरे हए शब्द ही मात्र निकलते हैं। शायद कविवर पंत जी की लेखनी से इसी कारण से ये शब्द बरवस निकल पड़े होंगे - 'वियोगी होगा पहला कवि. आह से निकला होगा गान, उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान्।' कितनी सटीक बात महाकवि पंत ने लिखी है। वियोग का प्रवाह जब मनुष्य के हृदय में उथल-पुथल मचाने लगता है तो उसके मुह से सिर्फ आह का ही शब्द निकल सकता है, और आँखों के माध्यम से एक धारा का स्वरूप लेकर बाहर-निकल पड़ता है। वह आह आँखों को तो मात्र माध्यम बना कर बाहर जगत में पैर रखती है, पर समूचे शरीर को उससे पहले निश्चल कर देती है। उसकी धारा इतनी तेज होती है कि मनुष्य को संतुलन रखना संभव नहीं हो पाता और वही असंतुलन ही काव्य-रूप में परवर्तीकाल में व्यथा की कोख से जन्म लेता है। फिर तो दुख की उस पीप को अपना विस्तार करने के लिए प्रेमी का समूचा शरीर ही आवश्यक हो जाता है। जो उसे शनै:-शनै: जर्जरित करके इस विश्व से विदाकर देता है। पुथू में भी इन्हीं भावों को पिरोया गया है, किन्तु पुथू को अतिशयता से चाहने वाला अपनी भावनाओं पर काबू पा कर उसे संसार के तथ्यों से अवगत कराना उचित समझता है। इसीलिए वह दुख में भरे होने के बावजूद चार वर्षकी बालिका को संसार के उन सारे अनुभवों को बताना चाहता है, जो नित प्रति संसार में घटते हैं। वह मात्र पुथू के प्रेम में ही आवद्ध नहीं है, क्यों कि वह उसका दादू (दादा) है और-पुथू जब उसे दादू-कह कर पुकारती है तो वह अपने को स्वर्ग के किसी देव से कम नहीं समझता।
कभी-कभी सब कुछ ठीक ठाक चलते रहते हुए भी कहीं पर कुछ अघटन घट जाता है और दोनो पक्षों को अलग हो जाना पड़ता है, औरयही स्थिति पुथू और दादू की भी है। अब न तो दादू और-पुथू का मिलन होता है और ना ही उन दोनो के अंदर प्रेम की, आनंद की, आत्मीयता की चुलवुली बातें, जो एक बच्चे में ही पायी जा सकती हैं, सुनने को मिलती हैं। फिर भी दादू को यह आशा है कि पुथू जब बड़ी हो जायगी तब वह उससे मिलने जरूर आएगी, क्यों कि उसके ऊपर उस समय किसी का कोई दवाब नहीं होगा।
आशा में ही मनुष्य का जीवन टंगा है। यदि आशा मर गई तो सृष्टि नीरस लगने लगेगी। अत: दादू भी इसी आशा में है कि कब वह दिन आयेगा, जब पुथू से बात कर सकेगा। क्यों कि दादू के हृदय और मन के प्रकोष्ठ में पुथू बराबर उपस्थित रहती है और शायद दादू के जीवन काल तक वह बरावर बनी रहेगी।
यही है संसार का विधान। हर-किसी को अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। वह भाग्यशाली विरले ही होते हैं जो इस मर्त्य में सब कुछ पा जाते हैं। फिर भी संसार चलता रहता है, परिवर्तन आते रहते हैं, चक्र घूमता रहता है और धुरी अपनी जगह पर स्थित रह कर इस चराचर जगत को घुमाती रहती है। यही ही सृष्टि का नियम है, यही ही जीवन की क्रियाप्रक्रिया है और शायद यही ही इस सृष्टि की शाश्वतता का उत्स भी है।
- त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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