लोगों की राय

कविता संग्रह >> महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल

महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल

उमा शंकर गुप्ता

प्रकाशक : महाराजा मणिकुण्डल सेवा संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16066
आईएसबीएन :978-1-61301-729-6

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य

आत्मा परमात्मा और भक्ति की शक्ति के अनेक रूपों में बसी चेतना का आत्म दर्शन करते हुए इस कवि ने स्थान स्थान पर आस्था और विश्वास से संपूरित अनेक स्तुतियों और चिन्तन परक प्रार्थनाएं सृजित की है जिनमें त्याग, तपस्या और निवेदन के उच्च स्तरीय भाव स्वर समाहित है अवध और मिथिला के मिलन में जीवन के पवित्र संम्बन्धों की सुकोमलतम अभिव्यक्तियाँ हुई है जिनमें माता सीता के जन्म स्थान की महत्ता, पुरवासियो की विनम्रता और कन्यापक्ष जनकपुर तथा वरपक्ष अयोध्या की लोक संस्कृति का उद्घाटन हुआ है। इसी स्थान पर प्रभु राम के भक्तों के वन्य जीवन के अनेक हृदयस्पर्शी भावों की कामना करके श्री राम के वनवासी जीवन में हो रहे कष्टों का भी अपने हृदय में स्मरण किया है और दुःखी हुए ग्रंथकार ने भी मानवीय सुख दुःख का परिस्थितियों के अनुरूप भाव चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।

प्रभु श्री राम के भक्तों ने अयोध्या जी से चलकर पूर्व, उत्तर और पूर्वोतर के अनेक प्रदेशों में धर्मयात्रा करते हुए, दक्षिण पथ पर भी चलने का निश्चय किया, जहां उन्होंने प्राकृतिक वनसम्पदा, वन्यजीव और जीवन तथा धन सम्पदा से समृद्ध भौवन नगर में प्रवेश किया। लक्ष्मीपुत्र वणिक समाज के रत्न तो थे ही, श्री मणि कौशल जी और मणिकुण्डल जी। दोनो पिता पुत्रों ने इस नगर की श्री लक्ष्मी का अवलोकन, आंकलन किया, और अपना वाणिज्यिक प्रतिष्ठान स्वयं स्थापित करने का निश्चय किया। उन्होंने भौवन नगर के अपने व्यापार के सर्वथा उपयुक्त पाया और विधिवत शास्त्रीय विधान से अपने प्रतिष्ठान को स्थापित करके अपने व्यापार में मन-वचन और सत्कर्म के साथ व्यापार में संलग्न हो गये।

हर स्थान और समय सभी स्थानों पर कुछ सत्पुरूष होते है तो कुछ दुष्ट प्रकृति के निकृष्ट कर्मी तमो गुणी व्यक्ति भी होते है, जो साधु पुरुषों को अपने वाग्जाल में फंसा कर उनकी प्रतिष्ठा और सम्पत्ति का दोहन और हरण भी करने को तत्पर हो जाते है तथा उस समय की तलाश में भी रहते हैं जब वह अवसर पाकर अपने दृष्कृत्य को अंजाम दे सके। श्रेष्ठी श्रेष्ठ श्री मणिकुण्डल को भी एक तामसी वृत्ति का युवक मिला जिसका नाम था गौतम । उसने अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से सीधे-साधे, सद्विचारों और सद्कर्मों वालो श्री मणिकुण्डल को अपने निकृष्ठ इरादों में फंसालिया और उसके कहने पर अपने माता पिता से आज्ञा लेकर और पर्याप्त धन, लेकर वह दूसरे नगर में व्यापार करने के लिए चल पड़े। प्रस्थान से पूर्व श्री मणिकौशल जी ने अपने पुत्र को नीति वचन कह कर अनेक प्रकार से प्रबोधित किया। इस ग्रंथकर्ता ने भी नीति के, व्यापार व्यवसाय के और संसार में जीवन जीने के सद्वचन सुनायें और विदेश में किस प्रकार अपने धर्म और कर्म की पवित्रता बनायें रखते हुए सफलतापूर्वक सद्धर्म का निर्वाह करते हुए देश, राष्ट्र समाज और स्व-जाति का गौरव बढ़ाया जाय इसका उपदेश दिया। नीति के यह दोहे भी इस रचना का अंग हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book