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महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल

उमा शंकर गुप्ता

प्रकाशक : महाराजा मणिकुण्डल सेवा संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16066
आईएसबीएन :978-1-61301-729-6

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युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य

मणिकुण्डल जी की श्री राम जी पर अपार श्रद्धा, स्थान स्थान पर प्रभु श्री राम का नाम लेकर पौधारोपण, धर्म पर अटल विश्वास के साथ राजकुमारी को स्वस्थ करने की परोपकारी वृत्ति अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है। राजा बनने के बाद भी प्रभु श्री राम के दर्शन की ललक एवं दर्शन कर आत्मतुष्टि का भाव उनकी सुख-दुख, सफल-असफल सम स्थितियों में राम भक्ति की परिचायक है। राजा बनने के बाद उन्होंने लोककल्याण कार्यों यथा निर्धनों को भोजन-वस्त्र वितरण, युवाओं को रोजगार, सामूहिक पाठी पूजन, यज्ञोपवीत एवं विवाह समारोहों का आयोजन, सर्वजनों को शिक्षा, चिकित्सा की सुविधायें, सुख शान्ति व्यवस्था, निर्भय वातावरण, सृदृढ़ मार्ग निर्माण, समुचित खेल सुविधायें एवं धर्ममय परस्पर प्रेम सौहार्दमय वातावरण का निर्माण इत्यादि का पूरा ध्यान दिया। भ्रष्टाचार विहीन राज्य में विद्वानों साहित्यकारों, संगीतज्ञों, खिलाड़ियों को प्रति चौथे वर्ष सम्मानित करना उनकी कलाप्रियता का प्रतीक है। जनता का सुख-दुख जानने के लिये गुप्तचर तन्त्र के बावजूद वे स्वयं भी वेश बदल कर जनता के बीच जाते थे। महापुर की जनता की आवश्यकतानुसार राज्य में विकास का माहौल बनाया।वे राजा रूपी पिता बनकर अपनी प्रजा का पूरा ध्यान रखते थे। राज्य में पर्याप्त सेना थी परन्तु उन्होंने कभी कोई अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं किया। उनका मानना था कि हमारा सबसे बड़ा अस्त्र शस्त्र प्रेम है। प्रेममयी विदेश नीति के कारण सभी पड़ोसी राज्यों से उनके स्नेहिल सम्बन्ध थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वे अहिंसा के सिद्धान्त पर राज्य करने वाले विश्व के प्रथम शासक थे। उन्होंने अपनी विलक्षण कार्यशैली के बल पर कुशल शासन कर न केवल अयोध्यावासी वैश्यों के आदिपुरुष वरन सम्पूर्ण वैश्य समाज के महाराजा के रूप में ख्याति अर्जित की । वास्तव में वे एक आदर्श राजा और महामानव थे।

इस महाकाव्य के नायक मणिकुण्डल जी दूसरे महाकाव्यों के नायकों से थोड़ा भिन्न हैं। प्रायः अन्य महाकाव्यों के नायक राजा या राजकुमार होते हैं। परन्तु इस महाकाव्य का नायक एक व्यापारी-पुत्र है। जिसमें अथाह रामभक्ति, सत्यधर्म पर अविचल आस्था, क्षमावृत्ति तथा परोपकार की भावना है। यह नायक विद्वान, नीतिज्ञ, अहिंसावादी एवं लोककल्याण की वृत्ति से परिपूरित है। ऐसा नायक वास्तव में सम्पूर्ण मानव समाज के लिये, किसी भी देश/राज्य के शासकों के लिये प्रेरक आदर्श एवं अनुकरणीय है क्योंकि यह जन्मना राजा न होते हुये अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से राजा बने, धार्मिक राजा बने।

मणिकुण्डल जी के अन्य व्यक्तित्वों के साथ-साथ एक पक्ष दार्शनिकता का भी है। उनका मानना था कि आत्मा की भांति सृष्टि भी अमर है, अजर है। सृष्टि में कभी भी सृजन या विध्वंस नहीं होता है, होता है तो केवल परिवर्तन । जहां उन्होंने जीवन चक्र को सतत चलायमान माना है, वहीं समय के परिवर्तन को भी पीरवर्तन शील माना है। वस्तुतः अनुकूल परिवर्तन को हम लोग सृजन या विकास कहते है तथा प्रतिकूल परिवर्तन को विध्वंस या विनाश कहते हैं। उनका मानना है कि अखिल सृष्टि में सब कुछ नियमबद्ध ढंग से चलायमान अर्थात् परिवर्तशील है। जीव-जन्तु, पेड़ पौधे, पहाड़, नदियाँ, जीवन, ऋतुये, तरंगे, किरणें, वायु, समुद्र, ज्वालामुखी, पृथ्वी, अग्नि, जल, आकाश, सूर्य, ग्रह, कृष्णछिद्र, आकाशगंगाये, प्रलय, महाविस्फोट, विज्ञान, ज्ञान आध्यात्म, धर्म, नैतिकता, वीरता, विद्वता, शासन, संग्रह, मानक, पाप, पुण्य, परिस्थिति, समस्यायें, सुविधायें इत्यादि सभी कुछ परिवर्तनशील हैं। यह सभी विश्व के त्रिआयाम (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) द्वारा संचालित हैं। वस्तुतः आधुनिक विज्ञान की भाषा में इन्हें ऋणावेश या अतिसूक्ष्म परमाणु (Electron), धनावेश या अग्रपमाणु (Proton) एवं निरावेश सूक्ष्माणु या नपुंस परमाणु (Nuetron) कहते है। यह लघुतम होते हुये भी महत्तम ऊर्जा का भण्डार होते हैं। यह तीनों परस्पर पूरक एवं सक्रिय चलायमान तो रहते ही हैं। इनमें सदैव परस्पर अदभुत सामज्जस्य होता है। इसी कारण संसार में सब कुछ पूर्व निधारित माना गया है।

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