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उपन्यास >> सहस्रबाहु

सहस्रबाहु

गुरुदत्त

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16136
आईएसबीएन :9789355211576

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‘यशस्वी रचनाकार स्व. गुरुदत्त ने रसायन विज्ञान (कैमिस्ट्री) में एम.एस.सी. की और गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर (अब पाकिस्तान में) में प्रोफेसर के पद पर कार्य किया। स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ने पर पद से त्याग-पत्र दे दिया। तत्पश्चात आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और उसे ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया; साथ-ही-साथ उपनिषदों और वेदों का गहन अध्ययन किया।

लेकिन नियति उन्हें बचपन से ही लिखने की प्रेरणा दे रही थी। शीघ्र ही वे उपन्यास-जगत में छा गए। उन्होंने अपने उपन्यासों के पात्रों द्वारा पाठकों को भिन्‍न-भिन्‍न विषयों का ज्ञान दिया। विज्ञान के प्रोफेसर यशस्वी लेखक ने अपने उपन्यास ‘सहस्रबाहु’ में पाठकों को अत्यंत रुचिकर विधि से आधुनिक विज्ञान व प्राचीन भारतीय विज्ञान की जानकारी दी है।

उपन्यास का एक पात्र बताता है कि इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन व न्यूट्रॉन तो वेदों में वर्णित वरुण, मित्र एवं सोम ही हैं, और कैसे उनकी विभक्ति भयंकर ऊर्जा उत्पन्न करती है। यदि इन फॉर्मूलों की प्राप्तिएक आस्तिक वैज्ञानिक को होती है तो वह मानव कल्याण का साधन बन जाता है और नास्तिक वैज्ञानिक यही ज्ञान प्राप्त कर अशांति व सर्वनाश का कारण बन जाता है। महान्‌ उपन्यासशिलपी वैद्य गुरुदत्त की यह कृति रोचक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी है।

– पदमेश दत्त

 

प्रथम परिच्छेद

पिछले दो वर्षों से काम इतना अधिक हो रहा था कि शरीर के स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक शक्ति का हास भी होने लगा था। रात को सोते समय अपना पढ़ने का चश्मा पलंग के समीप रखी ड्रेसिंग टेबल के दराज में रख दिया था और प्रातः उठते समय उसे बिल्कुल भूल गया। परिणाम यह हुआ कि सारा घर ढूँढ़ मारा। ड्रेसिंग टेबल के दराज देखने का ध्यान तक न आया। चश्मा उसमें कभी रखा नहीं जाता था और न ही रखना चाहिए था। इस कारण चश्मा न मिला।

वास्तव में, मैं भूल गया था कि रात सोने से पूर्व मैंने केशव का पत्र पलंग पर लेटे-लेटे पढ़ा था और पत्र तथा चश्मा दोनों ही ड्रेसिंग टेबल के दराज में रख दिए थे। सवेरे न पत्र का ही ध्यान आया और न ही चश्मे को दराज में रखने का। निराश बिना चश्मे के ही कॉलेज जाना पड़ा। सौभाग्य से उस दिन केवल एक क्लास लेनी थी और उसको भी छुट्टी देनी पड़ी। मैंने क्लास में जाकर कह दिया, ‘मुझको बहुत खेद है कि मैं अपनी ऐनक कहीं रख बैठा हूँ। मैं आज पढ़ा नहीं सकूँगा।’

क्लास को छुट्टी दे मैं सीधा अपने ‘ऑप्टीशियन’ की दुकान पर जा पहुँचा। उसके रजिस्टर में अपने चश्मे का नंबर निकलवाया और सायंकाल तक एक और चश्मे को तैयार कर देने का ‘अर्जेंट ऑर्डर’ दे दिया।

प्रायः मैं कॉलेज से छुट्टी पा लाइब्रेरी जाया करता था। वहाँ अपनी नवीन पुस्तक के लिए सामग्री एकत्र किया करता था। आज मैं वहाँ नहीं जा सका। पढ़ने-पढ़ाने वाले व्यक्ति के लिए चश्मा लँगड़े की लाठी के समान है। मैं कुछ काम करने में असमर्थ होने से घर जा पहुँचा। वहाँ मेरी स्त्री ने मेरी पुस्तकों की अलमारी में से पुस्तकें उठा, एक ओर कर ढूँढ़ने की कोशिश की थी। कमरे की दरियाँ उठा ली गई थीं और मेज, अलमारी इत्यादि को खिसकाकर उनके पीछे तथा नीचे देख लिया था।

मैंने उसको चश्मे के लिए इतना प्रयत्न करते देख कहा, ‘जाने भी दो। अब तो मैं नई बनने के लिए दे आया हूँ। एक घंटे भर में बनी हुई आ जावेगी।’

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