नई पुस्तकें >> दून के पाँखी दून के पाँखीदिनेश कुमार सिंह
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51 हृदयस्पर्शी कवितायें
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बात उन दिनों की है जब मेरी स्कूली शिक्षा की अभी-अभी शुरुआत हुई थी। हिंदी विषय में एक पाठ था, जिसका शीर्षक था "वर्षगाँठ"। माँ पढ़ा रही थी, मुझे विषय समझ में आ रहा था, पर बालपन की वजह से शरारत कर रहा था। एक दो बार समझाने के बाद, माँ नाराज़ हो गई और उन्होंने मुझे चाँटा जड़ दिया। माँ बोली "तुम्हारी इच्छा होगी तो तुम अपने से पढ़ोगे, पर मैं अब नहीं पढ़ाऊँगी।" मेरी सारी शरारत गुल हो गई थी। कुछ देर चुप रहने के बाद मैं जोर-जोर से पाठ पढ़ने लगा। माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया। वह यह दिखा रही थी कि वह काम में व्यस्त है। उस चाँटे ने अपना काम कर दिया। वह पाठ जीवन भर के लिए याद रह गया।
मैंने माँ विद्या (मेरी माँ, सरस्वती) को, जीवन भर पढाई के लिए कोई चोट नहीं देने का दृढ संकल्प कर लिया। और हुआ भी यही, जब तक वह जीवित रही, मेरी पढ़ाई को लेकर उसने कभी कोई शिकायत नहीं की। अनेक कष्ट उसने झेले, हमने झेले, परन्तु वह हरिवंशराय बच्चन जी की कविता के पात्र नन्हीं चींटी की तरह परिवार की जिम्मेदारियाँ लेकर जीवन की दीवार चढ़ती रही, कई बार गिरी, पर हर बार वह उठ खड़ी होती और जुट जाती। मैं मूकदर्शक बन वह सब देखता रहा और अपनी कोशिश में सीखता रहा। दुःख बस इतना ही है कि जब वनवास के दिन बीतने वाले थे, माँ इस दुनिया से चली गई।
इसलिए आज मैं अपनी पहली पुस्तक उस माउली और अपने पिता के चरणों में समर्पित करता हूँ। और यह विश्वास देता हूँ कि मैं आज भी अपना पाठ पढ़ रहा हूँ। और उनको दिया हुआ वचन, आज भी पूर्ण कर रहा हूँ। वह अपना आशीर्वाद मुझ पर बनाये रखे।
- दिनेश कुमार सिंह
30 मई 2022, नवी मुंबई, भारत।
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