नई पुस्तकें >> संवाददाता संवाददाताजय प्रकाश त्रिपाठी
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इकतीस अध्यायों में रिपोर्टिंग के उन समस्त सूचना-तत्वों और व्यावहारिक पक्षों को सहेजने का प्रयास किया गया है, जिनसे जर्नलिज्म के छात्रों एवं नई पीढ़ी के पत्रकारों को अपनी राह आसान करने में मदद मिल सके
जाने-माने पत्रकार ओम थानवी की चिंता है कि मीडिया में श्रेष्ठ प्रतिभाएं सचमुच बहुत कम हैं। टीवी-रेडियो मनोरंजन अधिक करते हैं। सोशल मीडिया- ब्लॉग आदि- अपने चरित्र में ही खुला-खेल-फर्रुखाबादी है। अखबारों में सबसे बड़ी समस्या है, समझ और संवेदनशीलता की कमी। ऐसे दौर में सबसे बड़ा झटका विचार को लगा है। मीडिया के दाय में गुणवत्ता की गिरावट का, निराकरण क्या एक विश्वविद्यालय की स्नातक डिग्री, किसी मीडिया संस्थान के डिप्लोमा या वहाँ की स्नातकोत्तर डिग्री से हो सकता है? क्या पत्रकारिता की ‘शिक्षा’ भी उसी रास्ते पर नहीं जा रही? पत्रकारिता के लिए डिग्री-डिप्लोमा कानूनन जरूरी हो जाए तो ‘पत्रकार’ बनाने वाली दुकानें कुकुरमुत्तों की तरह पसर जाएंगी। उनमें से काम के पत्रकार कम ही निकलेंगे। बाकी लोग क्या करेंगे, इसका हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। तब पत्रकारिता का हाल शिक्षा से भी बुरा होगा, क्योंकि मीडिया में तो उसका परिणाम फौरन- टीवी-रेडियो पर हाथोहाथ और अखबारों में अगले रोज- सामने आ जाता है! जो इन माध्यमों में नौकरी पाने में सफल नहीं होंगे, वे अपने अखबार/ टीवी खुद चलाएंगे (उसके लिए कोई न्यूनतम अर्हता की जरूरत अब तक सामने नहीं आई है गो कि वह ज्यादा अहम है!)। क्या हैरानी कि तब पेड न्यूज, मेड न्यूज, लेड न्यूज के सारे भेद खत्म हो जाएं!
पत्रकारिता के छात्रों और नए पत्रकारों को आगाह करते हुए वह एक और बहुत महत्वपूर्ण विषय की ओर संकेत करते हैं कि जो तमाम लोग पत्रकारिता में डिग्री लेकर, किताबें लिखकर विश्वविद्यालयों या मीडिया संस्थानों में शिक्षक बन गए, वे पत्रकारिता पढ़ाते हैं, पत्रकार तैयार करते हैं। मैं दावे से कह सकता हूं कि उनमें ज्यादातर खुद पत्रकारिता करने के काबिल नहीं। वे कैसे पत्रकार तैयार कर रहे? मेडिकल शिक्षा मेडिकल काउंसिल की देखरेख में डॉक्टर खुद देते हैं। पत्रकारिता की शिक्षा गैर-पत्रकार कैसे देते हैं? किस नियामक संस्था की देखरेख में देते हैं? क्या चिकित्सकों की तरह पत्रकारों के लिए दोनों काम- पत्रकारिता और शिक्षण- नियमित रूप से एक साथ करना संभव है? दरअसल, मेडिकल शिक्षा और मीडिया शिक्षा की तुलना ही असंगत है। मेडिकल शिक्षा में शरीर संरचना की बारीकियां बुनियादी अध्ययन हैं। लेकिन पत्रकारिता के लिए जरूरी भाषा और शैली का संस्कार किसी पाठ्यक्रम से अर्जित नहीं किया जा सकता, उसकी सैद्धांतिक जानकारी ही पाई जा सकती है। शिक्षा के मैं खिलाफ नहीं। न प्रशिक्षण को निरर्थक मानता हूं। वे जीवन भर चलते हैं लेकिन औपचारिक शिक्षा पद्धति सारी दुनिया में कुछ क्षेत्रों में लगभग निरर्थक साबित हुई है। भरती में उसे बंदिश बनाना सेवापूर्व की उपयोगी शिक्षा या प्रशिक्षण मान लेना है, जो कि वह सामान्यतया नहीं होता। सबमें न एक-सी प्रतिभा होती है, न योग्यता। औपचारिक शिक्षा प्रणाली सबको एक तरह हाँकती है। हर शिक्षण और प्रशिक्षण में। पाउलो फ्रेरे और इवान इलिच औपचारिक शिक्षा के जंजाल पर बहुत कुछ लिख गए हैं। औपचारिक डिग्री अच्छी पत्रकारिता की गारंटी नहीं हो सकती। कोई भी डिग्री पत्रकार को अच्छी भाषा, सम्यक विवेक और आदर्शों के पालन की सीख की गारंटी नहीं दे सकती। ये चीजें पाठ याद कर अच्छे नंबर लाने से हासिल नहीं हो सकतीं। इन गुणों को अर्जित करना होता है। वे कुछ गुणों से हासिल होते हैं, कुछ व्यवहार और अभ्यास से।
पत्रकारिता के छात्रों और नए पत्रकारों को मीडिया चिंतक जॉन पिल्जर के विचारों से भी अवगत होना चाहिए। वह कहते हैं, आज मुझे पत्रकारिता के बारे में, पत्रकारिता द्वारा युद्ध के बारे में, प्रोपेगंडा और चुप्पी तथा इस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बातें करनी चाहिए। कार्पोरेट पत्रकारिता की शुरुआत कार्पोरेट विज्ञापन के उद्भव से हुई। जब कुछ निगमों ने प्रेस का अधिग्रहण करना शुरू कर दिया तो कुछ लोग जिसे 'पेशेवर पत्रकारिता' कहते हैं, उसकी खोज हुई। बड़े विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के लिए नए कॉरपोरेट प्रेस को सर्वमान्य, स्थापित सत्ताओं का स्तंभ - वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष तथा संतुलित दिखना था। पत्रकारिता का पहला स्कूल खोला गया और पेशेवर पत्रकारों के बीच उदारवादी निरपेक्षता के मिथकशास्त्रों की घुट्टियां पिलाई जाने लगीं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को नई मीडिया तथा बड़े निगमों के साथ जोड़ दिया गया और यह सब, जैसा कि रॉबर्ट मैक्चेसनी ने कहा है कि 'पूरी तरह से बकवास' है। जनता जो चीज़ नहीं जानती थी वह यह कि पेशेवर होने के लिए पत्रकारों को यह आश्वासन देना होता है कि जो समाचार और दृष्टिकोण वह देंगे वह आधिकारिक स्त्रोतों से ही संचालित और निर्देशित होंगे और यह आज भी नहीं बदला है।
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