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शब्द-शब्द परमाणु

जय प्रकाश त्रिपाठी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16195
आईएसबीएन :978-1-61301-732-6

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शस्त्र का अर्थशास्त्र और तीसरा विश्वयुद्ध : शब्द-शब्द परमाणु

दुनिया में शस्त्र-कारोबार का अपना एक भयानक इतिहास है, जिसके बूते तमाम समृद्ध सभ्यताओं को कुचला जाता रहा है। यह जानना भी सबसे महत्वपूर्ण होगा कि युद्ध किस तरह जन-जीवन, अर्थव्यवस्था और इंसानियत को तहस-नहस कर देता है। बमबारी से हजारों लोग जान से हाथ धो बैठते हैं, सुंदर इमारतें, बाँध, सिनेमाघर, संग्रहालय, अस्पताल, रेलवे स्टेशन, कल-कारखाने, शिक्षण संस्थान आदि सब नष्ट हो जाते हैं। हरे-भरे खेत बंजर भूमि बन जाते हैं। चारो तरफ से आम जनजीवन अकाल के खोह में धकेल दिया जाता है। युद्ध हमेशा निर्दय और क्रूर होता है। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक जन-जीवन को तो छोड़िए, तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो आधुनिक शस्त्र-तकनीक से लैस महाशक्तियां मानवता का कितना भयंकर विनाश कर सकती हैं, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है।

आधुनिक विश्व में व्यापक पैमाने पर परमाणु कार्यक्रमों का आधुनिकीकरण हो रहा है। ग्लोबल पीस इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि संयुक्त राष्ट्र के मंचों पर तो गरीबी, भुखमरी, गैर बराबरी, शोषण को खत्म करने के वायदे किये जाते हैं लेकिन सभी देशों की सरकारें फर्जी वायदों से मुकरते हुए युद्ध की योजनाएं बनाने में जुटी रहती हैं। जहां तक शस्त्र निर्यात बाजार की बात है, रूस के हथियारों का सबसे बड़ा ग्राहक भारत अगर 20 प्रतिशत सामान मंगवाता है, तो चीन कुल कारोबार का लगभग 18 प्रतिशत मंगवाता है। ऐसे में रूस के लिए भारत बहुत महत्वपूर्ण है और चीन भी। हर समय लगता है कि विश्व युद्ध का खतरा आसन्न है। अमेरिका दशकों से हथियारों का सबसे बड़ा कारोबारी बना हुआ है। शस्त्र और शस्त्रों के अर्थशास्त्र के साथ-साथ मानवता की अमर थाती शब्दों की, साहित्य की, कविता की, कवियों के शौर्य और बलिदान की भी बातें इसलिए कि तीसरे विश्वयुद्ध के अंदेशे और नरपिशाचों की समृद्धि भी हमे आख़िरी दम तक डरा न सके। परमाणु हथियारों के धंधे में अंधे और बर्बर हो चुके उन सबों ने आज तक हिरोशिमा की सिहरन से भी सबक नहीं लिया है, नाज़िम हिक़मत के शब्दों में उसी 'हिरोशिमा की बच्ची' से भी नहीं, जो कहती है- 

'मैं आती हूँ और खड़ी होती हूँ हर दरवाज़े पर
मगर कोई नहीं सुन पाता मेरे क़दमों की ख़ामोश आवाज़
दस्तक देती हूँ मगर फिर भी रहती हूँ अनदेखी
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
सिर्फ़ सात साल की हूँ, भले ही मृत्यु हो गई थी मेरी
बहुत पहले हिरोशिमा में,
अब भी हूँ सात साल की ही, जितनी कि तब थी
मरने के बाद बड़े नहीं होते बच्चे...'
 

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    अनुक्रम

  1. अनुक्रमणिका

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