जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
जब सोसायटी से अपना सम्बन्ध विच्छेद करने की वास्तविक घड़ी आ पहुंची, तब तिलक को क्रोध से अधिक दुख ही हुआ। उनके पन्द्रह हज़ार शब्दों के त्यागपत्र के आखिरी शब्दों में उनकी मनोवेदना स्पष्टतः झलकती है :
''बाहरी काम और वेतन स्वीकार न करने के सिद्धान्त पर जोर डालकर मैंने हरेक आदमी की सहानुभूति खो दी है और अपने को इतना अधिक अप्रिय बना लिया है कि दूसरे लोग आज मुझे अपने रास्ते का कांटा समझते हैं और मेरी छोटी-सें-छोटी गलतियां भी असम्भव रूप में बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती हैं।
''मैं अपने जीवन के आदर्श को छोड़ रहा हूं और यह विचार ही मेरे लिए संतोष तथा आश्वासन की बात है कि इस संस्था से अलग होकर ही मैं इसकी सबसे बड़ी सेवा करूंगा। जब तक मैं आप लोगों के साथ रहा हूं, तब तक इस संस्था की भलाई के लिए अपनी ओर से कोई भी कोर-कसर बाकी नहीं रखी। मैं इसमें और अधिक समय तक रहकर इसके अस्तित्व के लिए अपने को कोई विघ्न नहीं बनने दूंगा। मेरे प्यारे साथियो! मैं भरे हृदय से विदा मांगता हूं और आशा करता हूं कि मेरे अलग होने से शायद इस संस्था के सदस्यों में एकता फिर आ जाएगी, जो इस संस्था कल्याण के लिए परमावश्यक है। इसी एकता के लिए मैं आज अपना यह त्याग कर रहा हूं।''
कई छिद्रान्वेषी आलोचकों का कहना है कि तिलक दूसरों के साथ मिलजुलकर काम करने के अयोग्य थे, किन्तु उनकी यह मान्यता उनके गंवारपन का परिचायक है, क्योंकि तिलक ने अपनी जवानी के दस वर्ष न्यू इंग्लिश स्कूल और डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की सेवा में प्रसन्नतापूर्वक बिता दिए थे। यदि उनमें दूसरों की कठिनाइयों को समझने और उनसे मिलकर काम करने की क्षमता न होती, तो यह कभी भी सम्भव नहीं था। साथ ही दूसरी ओर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने अपने साथियों में अपने को पूरा-पूरा अप्रिय बना लिया था और उनकी त्रुटियों को दिखलाकर उनका तिरस्कार किया था। फलतः उनके जाने से सस्था का उद्धार ही हुआ और सोसायटी का काम पुनः सुचारु रूप से चलने लगा।
1890 में डेक्कन एजुकेशन सोसायटी में रहकर काम करना तिलक को असम्भव प्रतीत हुआ। इसी तरह उसके पच्चीस वर्ष बाद महात्मा गांधी को सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी में प्रवेश पाना तक भी असंभव प्रतीत हुआ। इस संस्था के संस्थापक गोखले की महात्मा गांधी के बारे में बहुत अच्छी धारणा थी और सभवतः उन्हें अपना उत्तराधिकारी भी वह मानते थे। किन्तु 1915 में हुई गोखले की मृत्यु के बाद, इसके अन्य सदस्य गांधी-जैसे मौलिक विचारवाले व्यक्ति को सदस्य बनाने में हिचकते थे। वे गांधीजी की महानता से उसी प्रकार भयातुर थे, जैसे तिलक को देखकर डेक्कन एजुकेशन सोसायटी के सदस्य थे। ऊंची पर्वत चोटियां दूर से कितनी ही लुभावनी और आकर्षक क्यों न लगें, लेकिन उनके निकट निवास करना कोई आसान काम नहीं है। महान व्यक्तियों के साथ भी यही बात लागू होती है। इसलिए जहां डेक्कन एजुकेशन सोसायटी के सदस्यों को यह अनुभव करने और तिलक को पदत्याग करने के लिए बाध्य करने में पांच साल लगे, वहां सर्वेन्ट्स ऑफ इन्डिया सोसायटी के सदस्य अधिक चतुर थे और महात्मा गांधी को सदस्य बनाने में ही हिचक रहे थे। बाद में महात्मा गांधी ने ही अपने आवेदनपत्र को वापस लेकर उन लोगों को उस अप्रिय परिस्थिति से मुक्त कर दिया।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट