जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
जीवन-भर राजनीतिक और कानूनी दांवपेंच में उलझे रहने के बावजूद उनका स्वाभाविक मानसिक झुकाव विद्वतापूर्ण अध्ययन-मनन तथा वैदिक और दार्शनिक शोध-कार्य की ही ओर था। वह व्यापक दृष्टिकोणवाले बड़े ही धार्मिक व्यक्ति थे और उन्हें 'गीता' के उपदेश पर अगाध विश्वास था। 'गीता' के सन्देश से ही उनके आध्यात्मिक सन्देहों का समाधान हुआ और ज्ञान की पिपासा शांत हुई। जैसा कि डां. राधाकृष्णन ने कहा है-''जिस राजनीतिक क्षेत्र में तिलक ने अपने जीवन का अधिकांश भाग लगा दिया था, वस्तुतः उसके लिए वह नहीं बने थे। वह जन्मजात विद्वान थे और सिर्फ जरूरतवश ही राजनीतिज्ञ थे।''
किन्तु, यह जरूरत इतनी जबर्दस्त थी कि राष्ट्रवाद उनके जीवन की प्रबल भावना बन गया, जिस पर उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इसके आगे उनकी अन्य सारी इच्छाएं, आकांक्षाएं औरे दिलचस्पियां दब-सी गई। वह देश की स्वतन्त्रता पाने के काम में तन-मन-धन से जुट गए। वह बहुत ही छोटे-छोटे सवालों पर भी जबर्दस्त राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा कर देने में माहिर थे। उदाहरणार्थ, 1907 में पूना में चले मद्यनिषेध आन्दोलन के दौरान एक पुलिस रिपोर्ट में बताया गया था कि 'पूना में ब्रिटिश राज खतम हो गया है। सारे जिले पर तिलक का ही अधिकार है और उन्हीं का शासन चल रहा है।''
हिंसा के प्रति तिलक का क्या दृष्टिकोण था (उनकी मृत्यु के बाद दस वर्षों तक इस सवाल पर बड़ी जोरदार चर्चा रही। उन्होंने अपने राजनीतिक आन्दोलन से हिंसा को अलग रखा। अपने सार्वजनिक भाषणों में वह विद्रोहात्मक तरीकों को न अपनाने की सलाह जनता को देते रहे। सरकार ने इस बात का पता लगाने की बड़ी कोशिश की कि उनका क्रान्तिकारियों से या बम में विश्बास रखने वालों से कोई सम्बन्ध है या नहीं। किन्तु इस तरह का कोई भी अभियोग वह उन पर नहीं लगा सकी।
दूसरी तरफ इस बात के काफी सबूत मौजूद हैं कि तिलक किसी न किसी तरह से क्रान्तिकारियों की सहायता करते रहते थे, यों उन्हें हिंसा के रास्ते से अलग हटाने का बराबर प्रयास भी वह किया करते थे। यह इसलिए कि वह इस बात को समझते थे कि भारत जिस स्थिति में है और जिस तरह वह निरस्त्र है, उस स्थिति में हिंसा का सहारा लेना उसके ही लिए नुकसानदेह होगा और इससे अंग्रेजों को अपना दमनचक्र चलाने का मौका मिल जाएगा, जिसमें देश पिस जाएगा। इसीलिए वह हिंसा के प्रयोग के पक्ष में नहीं थे, यों उन्हें कान्तिकारियों के प्रति पूरी सहानुभूति थी। फलतः वह गांधी जी की तरह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, किन्तु उनका यह विश्वास जरूर था कि वर्तमान स्थिति में हिंसा का सहारा लेना भयंकर अपराध से भी बढ़कर बुरी बात होगी। वह एक व्यवहारकुशल राजनीतिज्ञ थे, इसीलिए नैतिक तर्क-वितर्क का सहारा लिए बिना वह हिंसा के विरुद्ध थे। उनका मत था कि सब कुछ के बाद भी किसी पराधीन देश को हर सम्भव उपाय से अपनी आजादी हासिल करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट