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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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हम पहले ही यह देख चुके हैं कि सूरत कांग्रेस के प्रस्तावों के प्रारूप तैयार करने और उनमें महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए अविश्वसनीय कारण पेश करने में गोखले ने अपनी कैसी संदिग्ध भूमिका अदा की थी। इसमें सन्देह नहीं कि गोखले ने मेहता, बनर्जी और घोष के कहने पर ही ऐसा किया था और जब उन्होंने यह देखा कि इन प्रस्तावों में अनधिकृत हेर-फेर के कारण हंगामा खड़ा हो गया है, तब वह कलकत्ता कांग्रेस के प्रस्तावों पर वापस लौट आने के लिए राजी हो गए थे। लेकिन तब तक जो होना था, वह हो चुका था और कांग्रेस में दरार पड़ गई थी। नरम दल के खेमे में यदि किसी को इस दुर्भाग्यपूर्ण धटना से दुख था, तो वह उनको ही था।

सूरत कांग्रेस के बाद सात महीनों के भीतर ही तिलक को राजद्रोह के लिए दण्ड दिया गया। उस समय गोखले इंग्लैण्ड में थे और उन्हें इस फैसले से गहरा धक्का लगा। वह काफी समझदार थे, इसलिए उन्होंने यह महसूस किया कि ''इस सजा से हमारे दल को भी आघात पहुंचेगा, क्योंकि सरकार के प्रति पैदा हुए जनता के रोष का कुछ असर हम पर भी पड़ेगा।'' गोखले की यह आशंका सही सिद्ध हुई, क्योंकि लोगों के मन में किसी प्रकार यह धारणा घर कर गई कि तिलक की कैद के लिए वही जिम्मेदार हैं। फिर जब लन्दन में तिलक की कैद के खिलाफ आयोजित एक सभा में भाग लेने से उन्होंने इन्कार कर दिया, तब यह धारणा और पुष्ट हो गई, जिससे बौखलाकर गरम मिजाज के कुछ जोशीले लोगों ने गोखले के इस ''विश्वासघात'' के लिए उनकी हत्या तक कर डालने का षड्यन्त्र रचा। कुछ भारतीय समाचारपत्रों ने भी उन पर कीचड़ उछाला। इस सबसे दुखी हो गोखले ने 2 दिसम्बर 1908 को अपने सहकर्मी ए. व्ही. पटवर्धन को एक पत्र में लिखा था :

''इस प्रकार के आक्रमण इस मामले में विशेष रूप से इसलिए कायरतापूर्ण और घृणित हैं कि वे एक गैरहाजिर व्यक्ति के खिलाफ किए जा रहे हैं और भारत की वर्तमान दहकती स्थिति में दुष्टता के सूचक हैं। लेकिन इन लोगों की द्वेषपूर्ण हरकतें नई नहीं हैं। ये कई बर्षों से मेरे पीछे पड़े हुए हैं और उनके हमलों के तीखेपन को सिर्फ मैं ही जान सकता हूं। एक समय ऐसा भी था, जब मुझे इस सबसे घोर मानसिक पीड़ा होती थी, लेकिन अब मुझे इनसे कोई खास परेशानी नहीं होती।''

फिर भी गोखले ने कुछ समाचारपत्रों पर मानहानि का मुकदमा चलाकर उनसे हर्जाना वसूल किया और उसे संस्थाओं को दान कर दिया। लगता है कि उनका यह विश्वास था कि स्थिति के शान्त हो जाने पर तिलक को स्वदेश वापस ले आया जाएगा और स्वतन्त्र छोड़ दिया जाएगा। लेकिन उनका यह विश्वास गलत सिद्ध हुआ, क्योंकि उन्होंने इस सम्बन्ध में लार्ड मार्ले और बम्बई के गवर्नर से व्यक्तिगत तौर पर जो अपीलें की थीं, उनका कोई असर नहीं पड़ा और परिणामस्वरूप, तिलक अपनी सजा की पूरी अवधि बिताकर ही जून, 1914 में स्वदेश वापस आए। तब तक गोखले मृत्यु शय्या पर पहुंच चुके थे और यह जान गए थे कि अब उनके दिन गिने चुने बच रहे हैं। जैसा कि हम किसी पिछले अध्याय में देख चुके हैं, गोखले के मन में कांग्रेस में एकता लाने के तिलक के प्रयासों के प्रति दिली हमदर्दी थी और यह फिरोजशाह मेहता ही थे, जिन्होंने इन प्रयासों को निष्फल बना दिया था।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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