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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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अतः अपनी मृत्यु के दो सप्ताह पूर्व गोखले ने एस. एस. सेतलुर से श्रीमती बेसेण्ट द्वारा निर्दिष्ट आधार पर तिलक से समझौता करने का अनुरोध किया था :

''मैं जानता हूं कि इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि वह (तिलक) एक न एक दिन कांग्रेस पर अपना कब्जा जमा लेंगे। इसको कोई रोक भी नहीं सकता। उनके दल के जिम्मेदार लोगों के सामने मेरा (समझौता) प्रस्ताव जरूर रखना और इसे उनसे जरूर मंजूर कराना। भविष्य में चाहे जो कुछ भी हो, मुझे इस संतोष के साथ, कि कांग्रेस की हट समाप्त हो गई है, मरने दो।''

लेकिन यह सम्भव न हो सका और 19 फरवरी, 1915 को गोखले की मृत्ग्रु हो गई। गोखले और तिलक-दोनों ने अपनी-अपनी भूमिकाएं

ठीक ढंग से ईमानदारीपूर्वक निभाईं। अतः यह सोचना बेकार है कि यदि उन दोनों ने मिलकर काम किया होता, तो बहुत कुछ करके दिखाया होता। जीवनपर्यन्त परस्पर विरोध के बावजूद, वे दोनों एक दूसरे की उत्कृष्ट देशभक्ति और महती प्रतिभा के कायल रहे। 1905 में जब गोखले कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैण्ड में भारत की शानदार वकालत करके लौटे, तब पूना में उनके स्वागतार्थ एक सार्वजनिक समारोह आयोजित करने में तिलक अग्रणी रहे। इसी प्रकार जब तिलक को गोखले की मृत्यु का समाचार मिला, तब सिंहगढ़ से तत्काल वह पूना के लिए रवाना हो गए, ताकि उनकी शव-यात्रा में शामिल होकर यह अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें। फिर 'केसरी' में गोखले की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा था :

''लोग उनके नानाविध गुणों-जैसे प्रखर बुद्धि, कठोर अध्यवसाय और नम्रता-सरलता के लिए उनकी प्रशंसा करते हैं। मेरी राय में तो ये उनके बाहरी गुण हैं, जिनके बारे में मतभेद भी हो सकता है। लेकिन उस आभ्यंतरिक निर्झर के बारे में कोई मतभेद नहीं हो सकता, जिससे इन बाहरी गुणों के विकास में मदद मिली। उनका मुख्य जीवन-प्रवाह देश के लिए उनका सर्वस्व समर्पण ही था। जो लोग जीवन के सुखों का उपभोग कर लेने और काफी धन दौलत इकट्ठा कर लेने के बाद सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में पदार्पण करते हैं, उन्हें कोई भी ज्यादा महत्व नहीं देता, लेकिन जब किसी का ऐसे आदमी से परिचय होता है, जिसने किसी महान उद्देश्य को सामने रखकर अपने जीवन के प्रारम्भ में ही दुनिया के प्रलोभनों से मुंह मोड़ लिया हो और आपत्काल में भी अपने निश्चय पर अडिग रहा हो, तब उसके लिए हमारे हृदय में आदर की भावना जग जाती है। वास्तव में वह व्यक्ति परम भाग्यवान होता है और गोखले ऐसे ही व्यक्ति थे।''

गोखले के हृदय में भी तिलक के प्रति गहरा सम्मान भाव था। श्री निवास शास्त्री ने बताया है कि गोखले अपने सामने किसी को भी व्यक्तिगत रूप से तिलक की बुराई नहीं करने देते थे। वह कहा करते थे कि ''तिलक में कमजोरियां हो सकती हैं। मुझे स्वयं बहुत-सी बातों को लेकर उनसे निबटना है। लेकिन तुम कौन हो? तुम उनके पासंग भी नही हो। वह एक महान व्यक्ति हैं, उनकी स्वाभाविक प्रतिभा और सामर्म्य अव्वल दर्जे की है। उन्होंने देश की सेवा के लिए ही अपने उन गुणों को और अधिक निखारा है। मैं भले ही उनके तरीकों से सहमत न होऊं, लेकिन मुझे उनकी नीयत पर कभी कोई संदेह नहीं होता। मेरा विश्वास करो, उनके बराबर किसी ने भी देश के लिए अपना धन अर्पित नहीं किया है, उनके बराबर सरकार के शक्तिशाली विरोध का सामना किसी ने भी नहीं किया है और उनके बराबर हिम्मत तथा धैर्य का परिचय भी किसी ने नहीं दिया है। अपने संघर्षों के दौरान कई बार उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया और फिर अपने अदम्य पुरुषार्थ से अपनी स्थिति ज्यों की त्यों कर ली। और हर बार अपनी अदम्य इच्छा शक्ति से उसे फिर से इकट्ठा कर लिया।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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