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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

तिलक और गोखले का मतभेद राजनैतिक संकटों को लेकर उतना नहीं था, जितना कि सैद्धांतिक विचारों को लेकर। वे दोनों दो विभिन्न दायरों में चक्कर काटते प्रतीत होते थे, लेकिन वास्तव में उनकी भूमिकाएं एक दूसरे की पूरक थीं। दोनों परस्पर एक दूसरे के हाथ मजबूत करते थे। उन दिनों देश के हित में राजनैतिक आन्दोलनों की भांति ही वैधानिक प्रयास भी परमावश्यक थे। दादा भाई नौरोजी की तरह गोखले ने भी भारत पर की गई जुल्म-ज्यादती से ब्रिटेनवासियों को सुपरिचित कराने का बड़ा काम किया था। उनके स्वाभाविक सौजन्य और विनम्र युक्तियुक्तता से ब्रिटेन के सभी तबकों के लोग प्रभावित थे और खासकर लॉर्ड कर्जन और लॉर्ड मार्ले जैसे भिन्न-भिन्न व्यक्ति भी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते थे। ब्रिटेन की अपनी सात यात्राओं के दौरान उन्होंने भारत के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी। उन्होंने अपने को देश की सेवा में होम कर दिया था। वह जेल भले ही न गए हों, लेकिन कई बार उन्हें अपमान के कड़वे घूंट पीने और अकारण ही दुर्वचन सुनने पड़े थे। निश्चय ही वह भारत के एक सच्चे सेवक और महान राष्ट्र निर्माता थे।

गांधी जी ने कहा था-''मैं किसी राजनीतिक कार्यकर्ता में जो कुछ देखना चाहता था, वह मुझे गोखले में मिला-स्फटिक की भांति पवित्र, मेमने की तरह विनम्र, सिंह के समान वीर और अतिशय उदार।'' इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी, जो दिसम्बर, 1914 में दक्षिण अफ्रीका से अन्तिम रूप से स्वदेश लौट आने पर वह तुरंत गोखले की ओर मुड़े थे। यदि गोखले गांधी जी की स्वदेश वापसी के बाद दो ही महीनों के भीतर मर न गए होते, तो उन्होंने अपने जीवन को किस व्यावसायिक दिशा में मोड़ा होता-यह भारतीय इतिहास के लिए विचारणीय प्रश्न है। इतना ही विचारणीय एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कलकत्ता कांग्रेस में असहयोग के, जिसने गांधी युग का सूत्रपात किया था, महत्वपूर्ण प्रस्ताव के प्रति तिलक की क्या प्रतिक्रिया हुई होती, यदि उससे एक माह पूर्व उनका देहावसान न हो गया होता।

यह सभी जानते हैं कि गांधी जी ''सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी'' के सदस्य बनना चाहते थे और सम्भवतः गोखले उन्हें अपना उत्तराधिकारी मानते थे। लेकिन सोसायटी के सदस्यों ने यह सन्देह होने के कारण, कि कहीं यह भी तिलक की तरह न निकले, उन्हें सदस्य बनाने में हिचकिचाहट दिखाई, जिससे वह स्वयं अपना मार्ग चुनने के लिए स्वतन्त्र हो गए, हालांकि अगले बारह महीनों तक वह गोखले के आदेशानुसार ही देश का दौरा करते रहे और बिना राजनीति में सक्रिय भाग लिए ही अनेक लोगों से मिलते-जुलते रहे और इसके बाद ही उन्होंने अपनी अन्तःप्रेरणा के अनुसार काम करना आरम्भ किया। इस बीच उन्होंने सिंहगढ़ में तिलक के साथ भी कुछ दिन बिताए थे।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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