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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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वफादारी के इस उफान से तिलक निश्चय ही स्तन्ध हो गए होंगे, क्योंकि उन्होंने भी भर्ती अभियान में मदद देनी तो स्वीकार की थी, लेकिन वह केवल 'जैसे को तैसा' के आधार पर ही। वह नरम दलवालों की इस भावना से परिचित थे, लेकिन गांधी जी के पत्र में एक नया ही स्वर था, मजबूर कर देनेवाली एक ईमानदारी थी, जिसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उसी पत्र में गांधी जी ने आगे लिखा था-''आपने हमसे अपने घरेलु मतभेदों को दूर करने की अपील की है। अगर इस अपील का मतलब अधिकारियों के अत्याचार और अन्याय को सहन करना है, तो मैं इस अपील पर अमल करने में असमर्थ हूं। मैं संगठित अत्याचार का भरसक विरोध करूंगा। यह अपील सरकारी अधिकारियों से की जानी चाहिए कि वे किसी भी व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार न करें, जनमत का आदर करें और जनता से सलाह-मशविरा करें।"

महात्मा जी के प्रति तिलक की क्या प्रतिक्रिया थी? वह इतने महान थे कि गांधी जी को अपना सम्भावित प्रतिद्वन्दी कैसे समझ सकते थे; वह इतने कुशाग्र बुद्धि थे कि गांधी जी द्वारा प्रयुक्त नई राजनैतिक तकनीक की अचूक शक्ति को बखूबी समझते थे और वह इतने परिपक्व मस्तिष्क के थे कि इसको लागू करने में जो विपत्तियां आ सकती थीं, उन्हें भी सूब जानते थे। सौभाग्यवश, श्रीमती अवन्तिका बाई गोखले द्वारा 1918 में लिखी गई गांधी जी की जीवनी के भूमिका-स्वरूप उनके दर्शन के सम्बन्ध में तिलक का विचार उपलब्ध है, जिससे यह पता चलता है कि वह न केवल दिल से उनके प्रशंसक ही थे, गांधीवाद के, जो अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही था, भविष्य की भी कल्पना उन्होंने अपनी पैनी दृष्टि से कर ली थी। इसलिए आखिर में तिलक ने गांधी जी के सत्याग्रह के बारे में लिखा है-

''चूंकि कानून शांति और सुव्यवस्था कायम रखने के लिए बनाए जाते हैं, इसलिए कानून के खिलाफ विद्रोह करना या सरकारी अफसरों के आदेशों की अवहेलना करना स्वाभाविक रूप से गैरकानूनी समझा जाता है। जो भी देशभक्त आवश्यक सुधार लाने के लिए बेचैन है, उसे भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वह महसूस करता है कि कानून की अवज्ञा करना उचित नहीं है और इस प्रकार वह विकट स्थिति में उलझ जाता है। गांधी जी भी जब ऐसी ही विकट स्थिति में फंसे थे, तभी उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। इस प्रकार निष्क्रिय विरोध, बाधा या सत्याग्रह के आविष्कार का श्रेय उन्हीं को है और उन्होंने ही इसे अपनी तपस्या से निखार दिया है।

''यह कहना कठिन है कि न्यायोचित होने पर भी सत्याग्रह हर मौके पर किया जा सकता है या नहीं और यदि किया जा सकता है, तो हर जगह यह कारगर हो सकता है या नहीं। लेकिन यह बात सबको माननी पड़ेगी कि इसमें बहुत बड़ी सम्भावनाएं निहित हैं। प्रत्येक कानून को भंग करने के लिए सजाएं निर्धारित हैं, ताकि प्रजा उसका पूरी तरह पालन करने को मजबूर हो। लेकिन जब कानून स्वयं अनैतिक हो और सरकारी अधिकारी उसे लोगों पर जबरन लादना चाहते हों, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम सत्य, न्याय और धर्म पर अपनी आस्था को आजमाएं और उस अनैतिक कानून को भंग करें।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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