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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

''जो लोग सत्य और न्याय के प्रेमी हैं, उनका कहना है कि इस प्रकार के कानूनों की अवज्ञा सर्वथा न्यायोचित है और इसे एक कर्तव्य-एक धार्मिक कर्तव्य समझकर ही करना चाहिए। लेकिन सत्य और न्याय के प्रति निष्ठा इतनी उच्च कोटि की होनी चाहिए कि सत्याग्रही के मस्तिष्क में केवल कर्तव्यपालन की ही भावना विद्यमान रहे। सब कुछ के बावजूद, कर्तव्य करने की भावना से ही उसे अभिभूत रहना चाहिए। इसी को नैतिक बल, सत्यवादिता और चरित्र कहते हैं। यह नैतिक गुण पढ़ने लिखने या विद्वत्ता प्राप्त करने से ही नहीं आ जाता। उच्च कुल में जन्म पाना इसके लिए कोई आवश्यक शर्त नहीं है और न उच्च बौद्धिक शक्ति से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है।

''यह तो एक आध्यात्मिक शक्ति है-उपनिषदों का उपदेश है। यद्यपि आध्यात्मिक शक्ति पढ़ने लिखने या बौद्धिकता से प्राप्त नहीं की जा सकती, फिर भी 'गीता' के अनुसार कोई लगनशील व्यक्ति चाहे तो अपनी कठोर तपस्या से इसे प्राप्त कर सकता है। यही कारण है कि हमारे चरित्र निर्माण के लिए, महापुरुषों की जीवनियां अत्यन्त उपयोगी हैं। गांधी जी का जीवन इसी तरह का जीवन है और मैं तहे दिल से चाहता हूं कि इस दृष्टिकोण से अपने नैतिक बल और आध्यात्मिक शक्ति का निर्माण करने के लिए हम सब इसका अध्ययन करें।''

यहां यह याद दिलाना असंगत न होगा कि स्वयं तिलक ने बंगाल के विभाजन के समय 1905 में निष्क्रिय विरोध (सत्याग्रह) की वकालत की थी। लेकिन स्वयं उन्होंने इसके आविष्कार का श्रेय गांधी जी को ही दिया। तिलक के मन में सत्याग्रह की जो रूपरेखा थी, वह विशुद्ध रूप से एक राजनैतिक अस्त्र के रूप में ही थी। लेकिन गांधी जी ने जिस सत्याग्रह की खोज की और जिसका उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में प्रयोग परीक्षण किया, वह अपेक्षाकृत अधिक महत्व का था। इसी प्रकार हालांकि गोखले ने ही सर्वप्रथम ''राजनीति के आध्यात्मीकरण'' की बात की थी, लेकिन गांधी जी ही ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसे अमली जामा पहनाया और अपने निजी जीवन पर ही इसका प्रयोग-परीक्षण किया।

गांधी जी के ''निष्क्रिय विरोध (सत्याग्रह) के तरीके'' के सम्बन्ध में तिलक की धारणा ऐसी ही थी। वह उसे उपनिषदों के उपदेश से उत्पन्न हुआ मानते थे। इससे इसका और अधिक स्पष्ट विश्लेषण नहीं किया गया है। यहां यह भी बता देना आवश्यक है कि तिलक को सत्याग्रह की व्यावहारिक उपयोगिता पर सन्देह था। उन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी सराहना भले ही की हो, लेकिन एक राजनीतिज्ञ के नाते उन्होंने इसे कभी भी अंगीकार नहीं किया। मूलतः उनके लिए राजनीति एक प्रकार का युद्ध थी, ठीक उसी तरह, जैसे क्लाजविट्ज़ के लिए युद्ध राजनीति का विस्तार था। अतः उनका विश्वास था कि कोई भी युद्ध निश्चित ठिकानों से नहीं लड़ा जा सकता। उपलब्ध साधनों के आधार पर ही युद्ध नीति निर्धारित करनी चाहिए और बदली हुई स्थिति के अनुसार ही अपनी व्यूह-रचना करनी चाहिए। यदि युद्ध जीतना है, तो आगे बढ़ने के लिए कभी पीछे भी हट जाना चाहिए।

गांधी जी का राजनीति के ऐसे भौतिकवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से मौलिक मतभेद था। उनकी राजनीति उनके धर्म के अनुरूप थी : ''आपको यह समझ लेना चाहिए कि मैं राजनीति को अपने जीवन की गहनतम वस्तुओं से, जो सत्य और अहिंसा से अभिन्न रूप में जुड़ी हुई हैं, अलग नहीं कर सकता।'' इसी तरह उनकी देशभक्ति भी मानवता के साथ एकाकार थी : ''मैं देशभक्त इसलिए हूं कि मैं मानव हूं, मानवीय हूं।'' गांधी जी जानते थे कि तिलक उनके ऐसे विचारों से सहमत नहीं हैं। लेकिन रिफॉर्म्स ऐक्ट (सुधार अधिनियम) पर अम्रतसर कांग्रेस द्वारा पास किए गए समझौता विषयक प्रस्तावों पर टिप्पणी करते हुए उन्होने 'यंग इंडिया' में जब यह लिखा कि तिलक प्रेम और युद्ध में सब कुछ उचित समझते हैं, तब उन्होंने तिलक के प्रति अन्याय किया।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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