जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
गांधी जी ने तिलक के विचारों को जिस गलत तरीके से पेश किया, उससे तिलक के ऊपर गहरी प्रतिक्रिया हुई और 28 जनवरी, 1920 को पत्र भेजकर उन्होंने इसके जवाब में कहा :
''मुझे खेद है कि सुधार प्रस्ताव पर 'यंग इंडिया' में आपने मेरे बारे में लिखा है कि मैं राजनीति में सब कुछ उचित समझता हूं। मैं आपको यह बतलाने के लिए लिख रहा हूं कि आपके लेख में मेरे विचार को सही ढंग से पेश नहीं किया गया है। राजनीति दुनियादार लोगों का खेल है, न कि साधु-सन्तों का। अतः बुद्ध के इस उपदेश-''अक्कोधेन जिने कोधम'-अर्थात् क्रोध को प्यार से जीतो-के स्थान पर मैं श्रीकृष्ण के इस उपदेश पर आस्था रखता हूं कि ''ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्''-अर्थात् जो मुझे जिस रूप और जिस मात्रा में पूजते हैं, उसी रूप और उसी मात्रा में मैं उन्हें पुरस्कृत करता हूं। इससे समस्त अन्तर के साथ-साथ ''जवाबी सहयोग'' सम्बन्धी मेरी बात का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है। दोनों ही तरीके समान रूप से उचित और ठीक हैं, लेकिन इनमें से एक इस संसार के लिए उपयुक्त है, दूसरा नहीं। इस अन्तर के सम्बन्ध में और भी अधिक स्पष्टीकरण मेरी पुस्तक, 'गीता रहस्य' में मिल सकता है।''
तिलक का राजनीति के प्रति बराबर यही दृष्टिकोण रहा। यह पत्र इस दृष्टि से महत्व का है कि यह इस विषय पर उनका अन्तिम और निर्णयात्मक वक्तव्य है। अतएव इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि तिलक अपने जीवन की संध्या में इस सिद्धान्त का, जिस पर वह जीवन भर चलते रहे थे, परित्याग नहीं कर सकते थे। साथ ही, इसके माने यह भी नहीं हैं कि बह गांधी जी के कार्यक्रम और उनकी नीति का विरोध करते, क्योंकि गांधी जी के प्रति उनके दिल में गहरा सम्मान था, इसलिए अगर गांधी जी के तरीकों से स्वराज मिलता, तो वह उसका तहेदिल से स्वागत ही करते। लेकिन यह विवादास्पद है कि गाधी जी द्वारा कलकत्ता कांग्रेस के सामने पेश किए गए असहयोग कार्यक्रम के सभी मतों और सिद्धान्तों का अन्धानुसरण वह करते या नहीं। हालांकि गांधी जी को यह उम्मीद थी कि तिलक से उन्हें प्रोत्साहन और प्रेरणा प्राप्त होगी, फिर भी उन्होंने अपनी आत्मकथा में यह स्वीकार किया है कि ''असहयोग के अन्तिम चरण के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण होता, यह सदैव अटकलबाजी का ही विषय बना रहेगा।''
चूंकि तिलक ने स्वयं गांधी जी के कार्यक्रम से पन्द्रह साल पहले ही स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा जैसे कार्यक्रमों को देश के सामने रखा था, इसलिए वह अवश्य ही इन कार्यक्रमों के गतिशील पहलुओं को संहर्ष स्वीकार कर लेते। लेकिन विधान परिषदों के बहिष्कार का वह जोरदार विरोध अवश्य करते, क्योंकि जैसा कि उनके द्वारा स्थापित कांग्रेस डेमोक्रैटिक पार्टी के घोषणापत्र में कहा गया था, ''रिफॉर्म्स ऐक्ट (सुधार अधिनियम) को, चाहे अच्छा हो या बुरा, अमली जामा पहनाने के लिए'' वह वचनबद्ध थे। इस प्रश्न पर गांधी जी की स्थिति कितनी कमजोर थी, यह तीन वर्ष के अन्दर-अन्दर साबित हो गया, जब चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू की प्रेरणा से परिषदों पर कब्जा कर लेने के लिए स्वराज पार्टी की स्थापना की गई। लेकिन ये सब केवल अटकल की ही बातें हैं। आखिरकार वह अभागा दिन आ ही पहुंचा, जब क्रूर नियति ने, जो व्यक्तियों की भांति राष्ट्रों के भाग्य की भी नियामक होती है, 1 अगस्त, 1920 को हमसे तिलक को छीन लिया-वह हमारे बीच नहीं रहे और इस प्रकार भारत के आधुनिक इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो गया।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट