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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

तिलक, जो जयन्ती-समारोह में उपस्थित थे, रैंड की हत्या और उसके बाद की घटनाओं से बहुत दुखी हुए। उन्होंने लिखा : ''समझदार व्यक्तियों के सारे अच्छे कामों और सारी जनता के धैर्य और समझदारी को एक पागल हत्यारे के कार्य के कारण भुला देना मूर्खता है। इस भयानक कार्य की हम सभी निन्दा करते हैं।'' अखिल भारतीय समाचारपत्रों द्वारा सारे ब्राह्मण समाज पर इस हत्या का दोष थोपने के प्रयत्नों से वह बहुत क्रुद्ध थे। इन समाचारपत्रों का यह भी कहना था कि ब्राह्मण ब्रिटिश सरकार उलटने का षड्यन्त्र रच रहे हैं। पूना के ब्राह्मणों के विरुद्ध भारत के अंग्रेज अखवारों के प्रचार में ब्रिटेन के समाचारपत्र भी शामिल हो गए। 'डेली मेल' ने लिखा :

''पूना हत्याकाण्ड में कुछ भी पागलपन नहीं। पूना आज राजद्रोह और विद्रोह का केन्द्र बन गया है। पूना के ब्राह्मण सारे देश में कुख्यात हैं और उनमें शिक्षित वर्ग तो और भी बदनाम है।

अपने समाचारपत्रों और गुप्त षड्यन्त्रकारियों के द्वारा वे ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध विद्रोह कराने का पूरा प्रयत्न कर रहे हैं।''

सरकार का रुख पूना के जिलाधीश द्वारा प्रमुख नागरिकों की एक सभा में दी गई इस धमकी से स्पष्ट हो गया : ''यदि आप राजद्रोह, षड्यन्त्र और हत्याओं को समाप्त नहीं करेंगे तो मैं आपको चेतावनी देता हूं कि सरकार कठोर-सें-कठोर कदम उठाकर उन्हें समाप्त कर देगी।'' फलतः ब्राह्मणों को तंग करने की नीति चलती रही और यहां तक कि व्यक्तिगत रूप से तिलक को हत्या के षड्यन्त्र में लपेटने के प्रयत्न भी किए गए। भावनगरी ने ब्रिटिश संसद में प्रश्न पूछे कि सरकार तिलक के लेखों और भाषणों को राजद्रोहात्मक समझती है या नहीं। सरकार ने उत्तर में केवल इतना कहा कि यह कानून का विषय है जिस पर बम्बई सरकार ने अभी तक कोई भी अंतिम निर्णय नहीं लिया है।

इन आरोपों और धमकियों का तिलक ने 'केसरी' में छपे दो लेखों के माध्यम से बड़ा तीखा जवाब दिया। उनके शीर्षक थे-'क्या सरकार बुद्धि खो बैठी है?' और 'शासन करने का मतलब बदला लेना नहीं है'। जब उनके मित्रों ने सन्देह और आतंक के तत्कालीन वातावरण में उनकी स्पष्टवादिता पर चिन्ता व्यक्त की तो उन्होंने कहा : ''मैं कड़ी भाषा का प्रयोग अवश्य करता हूं, लेकिन मेरा हृदय सरकारी अफसरों द्वारा किए जा रहे अन्याय से क्षुब्ध है। मेरे शब्द मेरी अन्तरात्मा की पुकार हैं। फिर भी मैं जानता हूं कि मेरी भाषा चाहे कितनी भी कड़ी क्यों न हो, मैं सरकार की आलोचना करने में कानून की सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहा हूं।''

यहां तिलक वास्तविकता से कितनी दूर थे, यह अगले परिच्छेद में सिद्ध हो जाएगा।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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