जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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इन तीनों महारथियों ने मिलकर 'न्यू इंग्लिश स्कूल' का उद्घाटन जनवरी, 1880 को किया। यों दरअसल इस स्कूल में कार्यारम्भ तो 2 जनवरी, 1880 को ही हुआ, फिर भी यह दिन-1 जनवरी, 1880 राष्ट्रीय शिक्षा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। किन्तु चिपलूणकर एक वर्ष की छुट्टी लेकर एम० ए० की परीक्षा की तैयारी में लग गए और तिलक के सहायतार्थ तुरन्त महादेव बल्लाल नामजोशी और इसके बाद वामन शिवराम आप्टे भी स्कूल में आ गए जिनकी उच्चतर शिक्षा-उपलब्धि और अनुशासनप्रियता की प्रसिद्धि से इस स्कूल को एक विशिष्टता प्राप्त हुई। फलतः तीन महीने के अन्दर- अन्दर विद्यार्थियों की संख्या 500 तक पहुंच गई। इस पर वर्ष के अन्त में श्री चिपलूणकर ने बड़े गर्व से कहा था कि 'न्यू इंग्लिश स्कूल' आज एक पूर्णतया निष्पन्न तथ्य है। सैकड़ों कठिनाइयों और जनता की उदासीनता का सामना तथा निराशावादियों की अवहेलना करते हुए और पागलपन, असम्भव प्रयत्न और 'बाजू पर महल'-जैसे विशेषण पाते रहने के बावजूद, इस स्कूल ने आज सफलता प्राप्त की है। वस्तुतः किसी भी मनुष्य को, जो बने-बनाए ढर्रे को छोड़कर कोई विशेष काम करना चाहता है, इन सबका सामना करना ही पड़ता है।''
यह स्कूल इतना सफल सिद्ध हुआ कि चार वर्षों के अन्दर ही इसके छात्रों की संख्या हजार से ऊपर हो गई और यह सरकारी पूना हाई स्कूल की बराबरी करने लगा। जहां तक मैट्रिकुलेशन परीक्षा में अपने उत्तीर्ण विद्यार्थियों के प्रतिशत तथा अपने छात्रों को मिलनेवाली छात्रवृत्तियों का सम्बन्ध था, इसने एक रिकार्ड कायम कर दिया। इस स्कूल के संस्थापकों के सरकारी अनुदान न लेने के निश्चय से उन पर आर्थिक बोझ बहुत बढ़ गया था और प्रथम वर्ष तो तिलक और चिपलूणकर को एक रुपया भी वेतन नहीं मिल सका। 17 मार्च, 1882 में चिपलूणकर का असामयिक निधन हो गया। और स्कूल उनके निर्देशन से वंचित हो गया। यह स्कूल कितनी सफलता के साथ चल निकला था-यह शिक्षा-आयोग के अध्यक्ष डॉ डब्ल्यू डब्ल्यू० हण्टर के कथन से स्पष्ट हो जाएगा, जिन्होंने सितम्बर, 1882 में इस स्कूल का निरीक्षण किया था :
''स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता की भावना से प्रेरित कुछ सुयोग्य और उत्साही युवकों के कृति-स्वरूप विद्यमान यह स्कूल, सरकार से कोई भी सहायता न मिलने पर भी, न केवल इस देश के किसी भी सरकारी हाई स्कूल का ही, वरन् अन्य देशों के स्कूलों का भी मुकाबला कर सकता है और प्रतियोगिता में सफल सिद्ध हो सकता है।''
किन्तु यह स्कूल अपने संस्थापकों की खौलती हुई ऊर्जस्विता को पूर्णतया आत्मसात नहीं कर पाता था, अतः इस स्कूल के खुलने के कुछ ही महीनों बाद वे सार्वजनिक सेवा के लिए नए क्षेत्र की तलाश करने लगे और उन्हें यह महसूस करने में देर नहीं लगी कि देश को पुनर्जीवित करने का समाचारपत्रों से अधिक उत्तम साधन दूसरा नहीं हो सकता। उस समय देश की पत्रकारिता पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का राग अलापनेवाली आंग्ल-भारतीय पत्र-पत्रिकाओं का प्रभुत्व स्थापित था। दूसरी ओर राष्ट्रीय पत्रों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था और वे देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम (वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट) 1878 के अधीन ब्रिटिश सरकार के कोप-भाजन बन रहे थे। उस समय पूना से नामजोशी द्वारा निकाले जा रहे एक अंग्रेजी साप्ताहिक-सहित आधा दर्जन पत्र-पत्रिकाएं निकलती थीं, किन्तु उनमें से किसी का भी विषय-वस्तु आदि की दृष्टि से कोई विशेष मह्त्व नहीं था।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट