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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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इसके बाद के कुछ महीनों में दोनों गुट कांग्रेस के कलकत्ता-अधिवेशन में अपना जोर आजमाने की तैयारी में लगे थे। लेकिन दोनों की शक्ति-परीक्षा का अवसर इस अधिवेशन से पूर्व ही अध्यक्ष के चुनाव को लेकर आ उपस्थित हुआ। विपिनचन्द्र पाल और अन्य बंगाली नेता चाहते थे कि तिलक ही इस अधिवेशन के अध्यक्ष हों, किन्तु तिलक स्वयं यह चाहते थे कि लाला लाजपतराय अध्यक्ष हों। इन दोनों व्यक्तियों के नाम से नरम दलवालों को चिढ़ थी। उन्हें आशंका थी कि बंगालियों में फैली क्रोधाग्नि के कारण इस अधिवेशन में क्या होगा। अतः निराशा की हालत में उनके मन में तीसरी बार कांग्रेस की अध्यक्षता करने के लिए वयोवृद्ध दादाभाई नौरोजी को आमंत्रित करने का विचार सहसा आया और उनका विश्वास सही भी साबित हुआ, क्योंकि किसी ने भी इस वयोवृद्ध नेता का विरोध नहीं किया। परिलाम-स्वरूप स्वागत समिति की औपचारिक स्वीकृति के बिना ही उन्हें तदनुसार निमंत्रण भी भेज दिया गया।

तिलक को निराश नरम दलवालों की इस चाल पर हंसी जरूर आई होगी, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि दादाभाई वृद्ध होने के बावजूद विचारों से मूलतः एक बड़े भारी परिवर्तनवादी (रेडिकल) हैं। अतः मनोनीत अध्यक्ष के कलकत्ता-आगमन के अवसर पर उन्होने 'केसरी' में लिखा, ''दादाभाई का यह दृढ़ मत है कि भारत पर चल रहा ब्रिटिश शासन एक ऐसा फोड़ा है जो देश को अन्दर-ही-अन्दर खोखला बनाता जा रहा है। इस दृष्टि से यह सोचना गलत होगा कि वह बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा-विषयक प्रस्तावों का विरोध करेंगे। हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि दादाभाई केवल भाषण देनेवाले ऐसे राजनीतिज्ञ नहीं हैं जिसके लिए राजनीति मनोरंजन का साधन मात्र है, बल्कि एक ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिसने अपना तमाम जीवन देश की सेवा में अर्पित कर दिया है। दादाभाई को यह भलीभांति मालूम है कि देश के कोने-कोने में प्रवाहित नवीन चेतनाधारा कितनी मूल्यवान है।''

कांग्रेस के प्रौढ़ होने के बाद कलकत्ता-अधिवेशन उसका पहला अधिवेशन था। बीस वर्ष पूर्व इसी नगर में दादाभाई ने पहली बार इसके अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। बाइसवां अधिवेशन उस समय का सबसे बड़ा राजनीतिक मजमा था जिसे भारत ने पहली बार देखा था। 2,000 प्रतिनिधियों के अतिरिक्त हजारों दर्शक रोज इसमें सम्मिलित होते थे। और सचमुच ही इस अधिवेशन ने अपने मंच से स्वशासन (स्वराज) की मांग करके एक इतिहास गढ़ दिया। यों वृद्धावस्था से दादाभाई का स्वर क्षीण था, किन्तु उन्होंने अपने अध्यक्षीय अभिभाषण में जो घोषणा की, उसमें कोई भी कमजोरी नहीं थी :

''जिस प्रकार ग्रिटेन की सारी सेवाओं, विभागों और अन्य कार्यों का प्रशासन उस देश की जनता के हाथों में है, उसी प्रकार इस देश में भी होना चाहिए। जिस तरह ब्रिटेन और उपनिवेशों में कर लगाने कानून बनाने और प्राप्त करों को खर्च करने का अधिकार जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में है, उसी तरह भारत में भी होना चाहिए। ब्रिटेन और भारत के आर्थिक-वित्तीय सम्बन्ध समानता के आधार पर समंजित किए जाने चाहिए। हम कोई दया या दान नहीं मांगते। हम तो, बस, न्याय चाहते हैं। हमारी सारी मांग एक शब्द में निहित है और वह शब्द है-स्वशासन या स्वराज।''

इस भाषण से देश में जोश की लहर दौड़ गई। गरम दलवालों ने खुशियां मनाईं। दूसरी ओर नरम दलवाले निराश तो हुए, किन्तु अपने चेहरे से उन्होंने निराशा का भाव प्रकट होने नहीं दिया। आंग्ल-भारतीय पत्रों ने इस अध्यक्षीय भाषण को उग्रवादियों की विजय बताई।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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