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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

'इंग्लिशमैन' ने चुटकी ली : ''जिन दादा भाई को ब्रिटिश शासन के प्रति सुलग रही घृणा की ज्वाला को बुझाने के लिए आमंत्रित किया गया था, उन्होंने इसके लिए केवल मिट्टी के तेल का ही इस्तेमाल किया है, मतलब इसे और भड़काया है।'' 'लन्दन टाइम्स' गरज उठा : ''हमने तलवार के बल पर भारत को जीता है। इसलिए कांग्रेस जिन थोड़े से उच्च शिक्षित तबकों की प्रतिनिधि संस्था है, उन्हें मालूम हो जाना चाहिए कि उनके और भारतीय जनता के बीच यह ब्रिटिश तलवार अब भी मौजूद है। सारी स्थिति का निचोड़ यही है जिसके कारण भारत में पूर्ण स्वशासन के सारे दावे निरर्थक हो जाते हैं।''

स्वदेशी और बहिष्कार पर विषय-समिति में जो प्रस्ताव आए, उन पर गरम और नरम दलवालों के बीच मतभेद आसमान छूने लगा और गाली-गलौज तक की नौबत आ पहुंची। आखिर प्रस्ताव में यह जोरदार घोषणा करा कर कि 'बहिष्कार आन्दोलन न्यायोचित था और है, तिलक ने विजय प्राप्त कर ली, किन्तु इस प्रस्ताव के खण्ड 'जैसा बंगाल में चला'-के द्वैर्थक और अस्पष्ट होने से दोनों गुटों ने उसकी व्याख्या अपने मनोनुकूल अलग-अलग की और इस प्रकार अपने को सान्तवना दी। स्वदेशी के प्रस्ताव में 'किसी भी त्याग-बलिदान से' शब्द शामिल करने से इन्कार करने पर तिलक उत्तेजित हो उठे और विरोधस्वरूप अपने 60 समर्थकों के साथ बैठक छोड़कर चले गए। लेकिन जब उन्होंने यह धमकी दी कि वह इस आशय का एक संशोधन खुले अधिवेशन में पेश करेंगे, तब यह वाक्यांश प्रस्ताव में शामिल कर लिया गया।

फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि कलकत्ता-अधिवेशन में किसी गुट की विजय हुई। दोनों एकता की दुहाई देते रहे। लेकिन विषय-समिति के साथ ही खुले अधिवेशन में यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस का रुख किधर है। फिरोजशाह मेहता ने इस अधिवेशन में महत्वपूर्ण हिस्सा अदा किया और यदा-कदा तो उन्होंने वयोवृद्ध अध्यक्ष के प्रवक्ता का भी काम किया। किन्तु जो व्यक्ति सदा दूसरों पर हुकम चलाया करता था, उसको कलकत्ता अधिवेशन का वातावरण पसन्द नहीं आ सकता था, क्योंकि गरम दलवालों ने उनके (अध्यक्ष के) निर्णय को कई बार चुनौती दी और उसका उल्लंघन किया जो 'बम्बई केसरी' के लिए एक नया अनुभव साबित हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि दादाभाई की उपस्थिति से उत्तेजना दूरे करने और फूट न पड़ने देने में मदद मिली, पर फिर भी कलकत्ता अधिवेशन से आगे चलकर सूरत में उपस्थित होनेवाले संकट का आभास मिल गया था।

कलकत्ता अधिवेशन की उपलब्धियों से तिलक संतुष्ट थे। अतः उन्होंने बड़े ही मनोरंजक ढंग से उनका सारांश 'केसरी' में उपस्थित किया :

''देशभक्ति के सम्माननीय पुरोहित दादाभाई नौरौजी ने राष्ट्रीय कांग्रेस और स्वराज-संबंधी भारतीय अधिकार को पवित्र परिणय-सूत्र में आबद्ध करा दिया है। अपने को कांग्रेस का जनक कहनेवाले कुछ लोगों को यह विवाह स्वीकार्य नहीं, फिर भी यह विवाह हो जाने के बाद अब किसी में यह शक्ति नहीं कि वह इसे भंग करे या पूर्णावस्था (स्वराज्य) प्राप्त करने से रोके। दिन-ब-दिन देश इस नए दल के विचारों और सिद्धान्तों को अधिकाधिक मात्रा में अपनाता जा रहा है जो हमारी राजनीतिक प्रगति के लिए एक शुभ लक्षण है।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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