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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

तिलक ने बहिष्कार के अस्ति और नास्ति-स्वीकारात्मक और नकारात्मक-दोनों पहलुओं पर जोर डाला और कहा कि सर्वप्रथम तो इससे स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा, जिस पर सभी विचारों के लोग एकमत हैं। विशेषकर महाराष्ट्र में स्वदेशी आन्दोलन पहले ही आरम्भ हो गया था। इसका आरम्भ गोपाल हरि देशमुख (लोकहितवादी) से मान सकते हैं जिन्होंने लोगों को स्वदेशी वस्तुओं का, चाहे वे कितनी भी मोटी और खुरदरी क्यों न हों, इस्तेमाल करने की सलाह दी थी। लेकिन जनता का ध्यान इसकी ओर तब गया जब रानडे ने 1872 और 1873 में दिए अपने भाषणों द्वारा उसे आकर्षित किया। उन्होंने कहा कि देश की औद्योगिक पराधीनता पर लोगों का ध्यान कम जाता है और इसी कारण इसके परिणाम राजनीतिक पराधीनता से भी अधिक भयंकर होते हैं। इसलिए उन्होंने धर्म के रूप में तब तक स्वदेशी वस्तुओं को प्रयोग में लाते रहने का आग्रह देशवासियों से किया जब तक सरकार भारतीय उद्योगों की रक्षा करने को तैयार नही हो जाती। यह उनकी रचनात्मक प्रतिभा का ही फल था, जो औद्योगिक सम्मेलन की स्थापना हुई। इसमें उन्होंने काफी मदद की थी।

रानडे को इस कार्य में गणेश वासुदेव जोशी-सार्वजनिक काका-के रूप में एक लगनशील सहयोगी प्राप्त था। जोशी ने स्वयं काती तथा बुनी हुई खादी को पहनने का व्रत ले रखा था। जब गांधीजी ने खादी को अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम का अंग बनाया था, उससे चालीस वर्ष पूर्व की यह बात है। घर में बुने खादी वस्त्र को पहनकर ही जोशी ने 'सार्वजनिक सभा' के प्रतिनिधि-रूप में दिल्ली में आयोजित महारानी विक्टोरिया के हीरक जयन्ती-समारोह में भाग लिया था।

अपने गुरु की भांति गोखले भी स्वदेशी के परम भक्त थे जो उनके शब्दों में : ''कुल मिलाकर मातृभूमि के प्रति अत्यन्त गहरे, अत्यन्त उत्कट, मनोहारी प्रेम का परिचायक है।'' भारत सरकार की स्वतन्त्र व्यापार नीति उन दिनों के विचारों पर ही आधारित थी, किन्तु इसके पीछे राजनीतिक नीति क्या थी, यह छिपी नहीं रह सकी, क्योंकि इसने भारत की प्राचीन शिल्प कलाओं को तो नष्ट कर ही दिया, साथ ही भारतीय उद्योग के विकास विषयक नवीन प्रयत्नों का भी अन्त कर दिया। फलतः इससे भारत अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन के शिकंजों में जकड़ता गया। इसलिए स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलनों में केवल हमारी आर्थिक मुक्ति ही नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वतन्त्रता की उत्तोलक शक्ति भी निहित थी। इस बातको अन्य लोगों की अपेक्षा तिलक ने अधिक समझा था। फलतः एक ओर जहां वह स्वदेशी वस्तुओं और उद्योगों को प्रोत्साहित करने लगे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने उसके राजनीतिक पहलुओं को भी स्पष्ट करने की चेष्टा की। जो लोग यह कहते थे कि यदि हम चाहें भी तो अपने इस्तेमाल के लिए उतनी स्वदेशी वस्तुएं कहां पाएंगे, उनकी तिलक ने तीव्र भर्त्सना की :

''उनकी दलील है कि पहले मिलें खोली जाएं जहां स्वदेशी माल का उत्पादन हो, तभी वे उन वस्तुओं का उपयोग करने की बात सोचेंगे। ऐसी मूर्खतापूर्ण दलील सुनकर, बस, दया ही आती है। जिस तरह यह सोचना मूर्खतापूर्ण है कि कोई पानी में तभी उतरे जब तैराकी सीख ले, उसी तरह यह भी मूर्खतापूर्ण दलील है कि पहले पर्याप्त मात्रा में देशी माल का उत्पादन हो, तभी वे लोग स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करेंगे। लेकिन उत्पादन तभी सम्भव है जब उसको जनता या सरकार की ओर से प्रोत्साहन प्राप्त हो। वर्तमान परिस्थितियों में हमारे शासकों से तो कोई प्रोत्साहन मिलना सम्भव ही नहीं। फिर यदि जनता भी शंकाएं करने लगी तो भारतीय व्यापार और उद्योग, जो किसी प्रकार जीवित भी है, नष्ट हो जाएगे। अतः जो लोग स्वदेशी आन्दोलन को स्वदेशी वस्तुओं के बड़ी मात्रा में उत्पादित होने तक के लिए स्थगित करने की दलील पेश करते हैं, वे जानबूझ कर इस आन्दोलन को विकृत और भ्रामक रूप देना चाहते हैं।'

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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