जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलनों के राजनीतिक स्वरूप को छिपाने की कभी कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने लोगों से अपील की कि कुछ हानि सहकर भी वे स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करें और जहां स्वदेशी वस्तुएं प्राप्त न हों, वे ब्रिटेन को छोड़कर अन्य किसी भी देश की बनी वस्तुओं को काम में लाएं :
''भारत में ब्रिटिश सरकार बिल्कुल निरंकुश हो गई है। वह जनता की भावनाओं की तनिक भी परवाह नहीं करती। अतः इससे जनता में फैली उत्तेजना से लाभ उठाकर हमें चाहिए कि हम एक केन्द्रीय कार्यालय (ब्यूरो) खोलें जहां भारत की और ब्रिटेन को छोड़कर अन्य देशों की बनी वस्तुओं के बारे में जानकारी एकत्र की जाए और लोगों को सूचनाएं दी जाएं। इस कार्यालय की शाखाएं सारे देश में खुलें और आन्दोलन को जीवित रखने के लिए भाषण दिए और सभा-सम्मेलन किए जाएं तथा नए उद्योग भी खोले जाएं।"
तिलक जो कहते थे, वह करते भी थे। वह स्वयं और घर में भी स्वदेशी वस्तुओं का ही इस्तेमाल करते थे। नियमानुसार वह अपने पत्रों के लिए भी स्वदेशी कागज का ही इस्तेमाल करते थे और जब स्वदेशी कागज उपलब्ध नहीं होता था, तब वह ब्रिटेन को छोड़कर किसी अन्य देश के बने कागज को खरीदते थे। उन्होंने कई उत्साही युवकों की कुटीर उद्योग आरम्भ करने में सहायता की और 'पैसा-कोष' आन्दोलन का भी पूरा-पूरा समर्थन किया। यह कोष 1903 में भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए खोला गया था जिसमें हर व्यक्ति पीछे एक पैसा दान लिया जाता था। तिलक ने 1906 में बम्बई स्वदेशी सहकारी भण्डार (कोआपरेटिव स्टोर्स) की स्थापना में भी सहायता की। यह सहकारी संस्था आज भी फलफूल रही है। इसके प्रथम निदेशक-मण्डल में सर रतन टाटा और सर मनमोहनदास रामजी के साथ-साथ तिलक भी थे। उन्होंने कई स्वदेशी प्रदर्शनियों का भी आयोजन किया जिनमें से एक प्रदर्शनी स्वयं उनके घर पर लगी थी। स्वदेशी को लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने सारे महाराष्ट्र का दौरा भी किया।
वि० च० पाल और अरविन्द घोष जैसे बंगाली नेताओं के अलावा अन्य प्रान्तों से लाला लाजपतराय ही एक ऐसे प्रमुख नेता थे जिन्होंने तिलक के इस चार सूत्री कार्यक्रम का समर्थन किया (वास्तव में यह केवल तीन सूत्री ही था, क्योंकि स्वदेशी, वहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा-इन तीनों का लक्ष्य स्वराज्य प्राप्त करना था)। लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति ने 'भीख नहीं-संघर्ष' का नारा सर्वप्रथम दिल्ली-कांग्रेस में बुलन्द किया और उसे लोकप्रिय बनाया। इससे इस भावना का भी अन्त हुआ कि स्वदेशी आन्दोलन केवल बंगाल के लिए ही है और तभी तक चालू रहेगा जब तक बंगाल का विभाजन रह नहीं हो जाता।
वहिष्कार आन्दोलन का ब्रिटिश व्यापार पर कैसा असर पड़ा, इसका पता 'इंग्लिशमैन' के, जो कलकत्ता-प्रवासी अंगरेजों का मुखपत्र था, इस विलाप से लग जाता है :
''बहुत-सी प्रमुख मारवाड़ी फर्मों का व्यवसाय नष्ट हो गया है और यूरोपीय वस्तुओं का आयात करनेवाली कई बड़ी-बड़ी कम्पनियों को या तो अपनी शाखाएं बन्द कर देनी पड़ी हैं या थोड़े से व्यवसाय से ही सन्तुष्ट होना पड़ रहा है। गोदामों में माल जमा होता जा रहा है। यह तथ्य अब सबको ज्ञात है और इसे छिपाना व्यर्थ है। दरअसल अब समय आ गया है जब वहिष्कार से व्यापार को कितनी हानि हुई है, यह स्पष्ट कर दिया जाए। वहिष्कार करनेवालों को प्रोत्साहित करने का कोई प्रश्न ही नहीं, क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है इस बात की कि ब्रिटेन की जनता और भारत सरकार को इस तथ्य के प्रति जागरूक कर दिया जाए कि वहिष्कार के रूप में ब्रिटिश राज के शत्रुओं के हाथ एक ऐसा हथियार आ गया है जो इस देश में ब्रिटिश हितों को गहरी चोट पहुंचाने में कारगर है। वहिष्कार के प्रति ढिलाई या सहमति प्रदर्शित की गई तो यह किसी सशस्त्र क्रांति से भी अधिक खतरनाक साबित होगा जब भारत के साथ स्थापित ब्रिटेन का सम्बन्ध निश्चय ही टूट जाएगा।''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट