जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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ऐसी हुल्लड़बाजी और गुण्डागीरी के लिए चाहे जो भी जिम्मेदार रहा हो, मगर इतना सही है कि कांग्रेस के इतिहास में यह काला दिन था, जबकि 22 वर्षों के देशभक्तिपूर्ण राष्ट्रीय संघर्ष के बाद कांग्रेस ६ जो इज्जत-मर्यादा प्राप्त की थी, वह देखते-देखते कुछ ही क्षणों में मिट्टी में मिल गई। क्रोध और उत्तेजना का स्थान शीघ्र ही दुख और ग्लानि ने ले लिया। जहां तक नरम दलवालों का संबंध था, उनके विचार से अब फूट निश्चित रूप से पड़ चुकी थी। अतः उन्होंने अगले दिन एक सम्मेलन करने का निश्चय किया, जिसमें वैधानिकता और नरम विचारों के समर्थन में प्रस्तुत प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद ही कोई सम्मिलित हो सकता था (क्या नरम दल जानता था कि वह उन्हीं कार्यों को पूरा कर रहा था, जिन्हें करने के लिए तीन साल से लॉर्ड मॉर्ले उसे उकसा रहे थे?)
तिलक ने फिर भी मेलमिलाप और समझौते की आशा नही छोड़ी थी। इसलिए नरम दल के नेताओं को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा-
''कांग्रेस के हित का ध्यान रखते हुए, मैं और मेरा दल डॉ० रास बिहारी घोष के चुनाव का विरोध बन्द करने को और सभी बातें भूलकर फिर से काम करने को तैयार है, बशर्ते कि स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा पर पिछले वर्ष के प्रस्तावों को मान लिया जाए और उनकी पुष्टि की जाए तथा डॉ० घोष के भाषण में राष्ट्रवादी दल (नेशनलिस्ट पार्टी) के प्रति जो कुछ कटु बातें हों, उन्हें हटा दिया जाए।''
लेकिन नरम दलवाले इतना चिढ़े हुए थे कि समझौता-संबंधी इस प्रस्ताव का उत्तर भी उन्होंने नहीं दिया और अपने सम्मेलन की तैयारी में लगे रहे। दूसरी ओर तिलक को अभी भी आशा थी कि सूरत कांग्रेस से उत्पन्न उत्तेजना के समहत होने पर दोनों दलों की मानसिक अवस्था ठीक होगी और फिर समझौता हो जाएगा। उनका कहना था कि इस मतभेद से केवल शत्रु को ही लाभ हो सकता है, जो पहले गरम दल को और फिर नरम दल को कुचल देगा। इसी कारण उन्होंने अरविन्द घोष जैसे गरम विचारोंवाले अपने समर्थकों को राष्ट्रवादियों (नेशनलिस्टों) का पृथक सम्मेलन करने से रोका।
नरम दल के कुछ नेताओं ने बाद में चलकर तिलक के प्रयत्नों को माना यह इस बात से स्पष्ट है कि नरम दलवालों ने पूना जिला सम्मेलन, धुलिया प्रान्तीय सम्मेलन और बंगाल में पवना सम्मेलन करने में गरम दलवालों का साथ दिया और उनमें शामिल हुए। पवना सम्मेलन की अध्यक्षता रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। लेकिन जुलाई, 1908 में तिलक को काले पानी की सजा मिलने के बाद उनके अनुयायियों ने नागपुर में कांग्रेस का एक नियमित अधिवेशन आयोजित करने के जो प्रयत्न किए, उन्हें सरकार ने धारा 144 के अन्तर्गत विफल कर दिया और अधिवेशन नहीं होने दिया।
इस प्रकार राष्ट्रवादी (नेशनलिस्ट) उखाड़ दिए गए, जिससे उनकी शक्ति बहुत कम हो गई। दूसरी ओर सरकार की कृपा-सहायता से नरम दल ने कांग्रेस को अपने नियन्त्रण में ले लिया, जिसे चुनौती देने की शक्ति किसी में न रही। कांग्रेस संगठन नरम दल के अधीन लगभग आठ वर्षों तक रहा, जिनमें से प्रथम छः वर्ष तक तो तिलक जेल में थे और दूसरी ओर उग्रवादियों को सरकार ने निर्दयता से कुचल दिया।
1914 में तिलक के रिहा होने और अगले वर्ष 1915 में गोखले और मेहता की मृत्यु के बाद ही कांग्रेस की नीति बदली। यह तिलक के प्रयत्नों का ही परिणाम था, जो दोनों दलों में सन 1916 में आयोलित लखनऊ कांग्रेस में फिर मेल और एकता कायम हुई। लेकिन यह मेल-मिलाप भी क्षणिक ही साबित हुआ, क्योंकि देश के राजनैतिक मंच पर महात्मा गांधी के पदार्पण करने और 31 जुलाई, 1920 को तिलक के देहावसान के बाद नरम दलवाले धीरे-धीरे लुप्त हो गए।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट