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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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1897 की भांति तिलक इस बार भी बम्बई में थे, जब 24 जून को गिरफ्तारी का वारण्ट उन पर तामील किया गया। पूना में रेल पर चढ़ते समय ही एक हितैषी ने उन्हें चेतावनी दी थी कि गिरफ्तारी होनेवाली है, अतः वह घर लौट जाएं। तिलक ने उत्तर दिया था-''लौट जाने से क्या होगा? क्या मुझे शत्रु के आक्रमण को रोकने के लिए सेना खड़ी करनी है या और खाइयां खोदनी हैं। सरकार ने तो सारे देश को ही एक विशाल कारा बना रखा है। अतः वह कर क्या सकती है? यही न कि मुझे इस बड़ी जेल से हटाकर वह किसी और छोटी जेल में रख देगी? इससे क्या फर्क पड़ता है?'' वारण्ट पर अमल करने में जानबूझ कर देर की गई, ताकि तिलक जमानत के लिए न्यायालय न जा सकें। अगले दिन जब आवेदनपत्र दिया गया, तो प्रेसिडेन्सी मजिस्ट्रेट ने उसे अस्वीकार तो कर ही दिया, साथ ही दूसरे लेख को लेकर एक और अभियोग लगा दिया।

2 जुलाई को मो० अ० जिन्ना ने न्यायाधीश डावर के सम्मुख, जिनकी अदालत में मुकदमे की सुनवाई होनेवाली थी, जमानत की अर्जी पुनः पेश की। इन्हीं डाबर ने 1897 में तिलक के वकील के रूप में उन्हें जमानत दिलाई थी। यद्यपि इस बार भी परिस्थितियां वही थी कर पिछले निर्णय से तिलक के आवेदन को बल मिलता था, फिर भी डावर ने उसे सरसरी तौर पर अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अस्वीकार करने का कोई कारण बताने से भी इन्कार कर दिया। इससे स्पष्ट था कि न्याय का रूख किधर है। उन्होंने 'बम्बई के नागरिकों, किन्तु उच्च वर्गीय नागरिकों की ओर से चुने विशेष जूरी को नियुक्त करने का भी निश्चय किया। 'उच्च वर्गीय नागरिकों' से अर्थ था यूरोपीय, क्योंकि मराठी भाषा का कोई ज्ञान न होने पर भी सूरी के नौ में से सात सदस्य यूरोपीय ही होते थे और बाकी दो भारतीय रहते थे।

13 जुलाई को इस ऐतिहासिक मुकदमे की सारी तैयारियां पूरी थी। मुकदमे में अपनी सफाई में तिलक के स्वयं जिरह-बहस करने के निश्चय से लोगों को आश्चर्य हुआ। इसका एक कारण यह भी था कि तत्कालीन गर्मागर्मी के वातावरण में कोई यूरोपीय वकील-बैरिस्टर मिलना मुश्किल था। यहां तक कि कई बड़े भारतीय वकीलों ने भी उनके मुकदमे को हाथ में लेने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उन दिनों राजद्रोह के अभियुक्त की सफाई में खड़ा होने से किसी वकील के पेशे पर आंच आने का डर था। और फिर धन का भी अभाव था। लोग दमन-चक्र से इतना आतंकित थे कि 1897 की तरह इस बार किसी ने भी रक्षा-कोष नहीं खोला।

उनको सजा मिलेगी-यह हर हालत में निश्चित था। और स्वयं सफाई में जिरह-बहस करने से उन्हें कुछ लाभ भी थे। वह रिहाई चाहनेवाले कोई साधारण अभियुक्त नहीं, बल्कि स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाले देश के एक महान प्रतिनिधि थे। स्वतन्त्र होने की जनता की इच्छा के प्रतीक-स्वरूप-भारत के करोड़ों दबे-पिसे लोगों के प्रवक्ता-रूप में वह कटघरे में खड़े थे। तिलक का मुकदमा भारत के कानूनी इतिहास में और उससे भी अधिक हमारे स्वतन्त्रता-संग्राम के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। उन्होंने सूरी के सम्मुख 21 घण्टों तक जो वक्तव्य दिया, वह उनके अपूर्व कानूनी ज्ञान और तर्क-पटुता का परिचायक था तथा देश की आजादी की लड़ाई का घोषणा-पत्र था।

राजद्रोह के कानून को स्पष्ट करने के बाद तिलक ने सूरी से कहा-''अपने विचारों के कारण आज मैं कटघरे में खड़ा हूं। यदि आप भी सुधार चाहें, तो कल आप भी कटघरे में होंगे। सरकार की गलतियों को दिखलाना या प्रशासन को सुधारने की मांग करना राजद्रोह नही है। अपनी जनता की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करना और सरकार बदलने के लिए आन्दोलन छेड़ना किसी का भी सहजसिद्ध-जन्मसिद्ध अधिकार है।'' अतः उन्होंने जूरी से प्रार्थना की कि वे नौकरशाही और सरकार के भेद को सही-सही समझें।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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