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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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''नौकरशाही सरकार नहीं है। नौकरशाही की आलोचना करने का मतलब नियमानुसार स्थापित सरकार के प्रति अपमान घृणा भाव पैदा करना नहीं होता। यह कानून मान्य है कि स्वशासन का अधिकार मांगना राजद्रोह नहीं है। किसी भी प्रशासन में आप भाग लेने का अधिकार तब तक कैसे मांग सकते हैं, जब तक आप उस प्रशासन की त्रुटियों को नहीं दिखलाते? यदि आप त्रुटियां नहीं दिखला सकते, तो आप सुधार की मांग नहीं कर सकते। इससे नौकरशाही नाराज हो सकती है, लेकिन इस कार्य में ऐसा कुछ भी नहीं, जिससे सरकार के प्रति कोई अपमान या घृणा भाव उत्पन्न हो।"

सरकार की ओर से लगाए गए इस आरोप का, कि उन्होंने बमबाजी का समर्थन किया था, तिलक ने खण्डन किया और जूरी को बतलाया कि उन्होंने तो बार-बार इसी बात पर बल दिया है कि बम फेंकना स्वराज प्राप्त करने का तरीका नहीं है और ऐसा काम नैतिकता के विरुद्ध है। 'केसरी' मे प्रकाशित दो लेखों को लिखकर उन्होंने एक पत्रकार के नाते जनता के प्रति अपना कर्तव्य ही पूरा किया था-

''खुदीराम को उसी समय सजा मिली थी और इस विषय पर मुझे अपने विचार प्रकट करने थे। अतः चाहे वातावरण उत्तेजनापूर्ण रहा हो या शान्तिपूर्ण, यह मेरा कर्तव्य था। और अशान्ति के समय हा पत्रकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सरकार को बताए कि इस अशांति के कारण क्या हैं? निश्चय ही यह एक बहुत ही कठिन-बहुत ही अप्रशंसित कर्तव्य है, जिसमें कभी-कभी तो भारी जोखिम भी उठाना पड़ता है। लेकिन यदि पत्र जनता के लाभ और सरकार के हित को ध्यान में रखता है, तो आप अपने कर्तव्य में किसी और विचार को दखलन्दाजी करने नहीं दे सकते। हो सकता है, कोई आलोचक गलतियां ढूंढ़ निकाले, किन्तु लेखक की नीयत पर सन्देह करना सर्वथा अनुचित है।''

तिलक ने कहा कि इन लेखों को लिखते समय मेरा मुख्य उद्देश्य आंग्ल-भारतीय पत्रों के आक्षेपों को झूठा सिद्ध करना और उनकी पागलों की-सी इस मांग का खण्डन करना ही था कि दमन को और पुरजोर बनाया जाए तथा भारतीयों को चलते-फिरते ही गोली मार दी जाए। मेरा उद्देश्य सरकार के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करना नहीं था। मैं तो केवल आंग्ल-भारतीय पत्रों के द्वेषपूर्ण वक्तव्यों का जवाब दे रहा था, मगर इन पत्रों के विरुद्ध सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।

''वास्तव में हमें तो 'पायनियर' जैसे आंग्ल-भारतीय पत्रों से अधिक मत-स्वातंत्रय मिलना चाहिए, क्योंकि दण्ड संहिता के अनुसार, आत्मरक्षा में जो कुछ भी किया जाए, वह कोई अपराध नहीं है। मान्य जूरीगण! यदि आप भी अपनी जनता के प्रतिनिधि होते, तो इन परिस्थितियों मे क्या करते! स्पष्टतः आप भी वही करते, जो मैंने किया। मैंनै 'पायनियर' के लेखों की चर्चा बहुत ही नम्र और साधारण शब्दों में की है और तर्क का जवाब तर्क से दिया है। क्या हम 'पायनियर' को इस देश की जनता के प्रति गालियां बकने की इजाजत देगे? अगर ऐसा ही है, तो भारतीय भाषाओं के पत्रों को बंद कर दिया जाए और केवल 'पायनियर' को ही अकेले निकलने दिया जाए। इस प्रकार के झूठे अभियोगों का उत्तर देना मेरा कर्तव्य था।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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