जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
अभियोगों की अस्पष्टता (जो अनुचित ढंग से जोड़ दिए गए थे) और लेखों के तोड़े-मरोड़े गए गलत अंगरेजी अनुवाद ('जिससे कोई भी वस्तु राजद्रोहात्मक बन जाएगी') और अपनी नीयत (जो साबित न हो सकी) पर प्रकाश डालने के बाद तिलक ने अपना वक्तव्य समाप्त किया, जिसे देने में पांच दिनों के अन्दर लगभग 21 घंटे लगे। यह देखते हुए कि नौ में से सात जूरी यूरोपीय हैं, उन्होंने अन्त में कहा-
''मैं आपसे इस देश में उन्हीं विशेषाधिकारों और सुविधाओं की मांग कर सकता हूं, जो अंगरेजी के पत्रों को प्राप्त हैं। इसी प्रश्न पर आज से बहुत दिन पहले सन् 1792 में ही इंग्लैण्ड में संघर्ष हुआ था। वहां लोग आज समाचारपत्रों की स्वाधीनता का उपयोग करते हैं, जिसे उन्होंने अठ्ठारहवीं शताब्दी में ही मांगा व प्राप्त किया था। यह वैसा ही एक मामला है। आपको अपनी परम्परा पर गर्व है। लम्बे संघर्ष के बाद आपको पत्र-स्वातंत्र्य प्राप्त हुआ है और मुझे विश्वास है कि आप उस स्वाधीनता को हम भारतीयों की अपेक्षा अधिक महत्व देते हैं। भारत में जनता और ताकतवर नौकरशाही के बीच महान संघर्ष चल रहा है। अतः मेरी मांग आप सबसे केवल इतनी है कि व्यक्तिगत रूप से मेरी ही नहीं, बल्कि सारे भारतीयों की अपने देश के शासन में हिस्सा बटाने के अधिकार के लिए छिड़े संघर्ष में थोड़ी सहायता करें। आपका उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है। यदि आपमें से कम-से-कम एक भी यह कह दे कि तुमने जो कुछ किया, वह उचित था, तो मुझे संतोष होगा। मैं अपने लिए नहीं, बल्कि जनता के हित में आपसे प्रार्थना करता हूं, जिसका प्रतिनिधि होने का मुझे गर्व है और मेरे लिए यह एक पवित्र उद्देश्य है।''
तिलक के बाद महाधिवक्ता (ऐडवोकेट जनरल) ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए आरम्भ में ही तिलक पर व्यंग्य किया और कहा कि ''उन्होंने पांच दिनों तक अपना बयान सुनाकर जूरी को काफी कष्ट दिया है।'' इससे महाधिवक्ता के वक्तव्य का भाव स्पष्ट हो गया।
1897 में न्यायाधीश स्ट्रेची द्वारा दिए गए निर्णय पर उन्हें पूरा भरोसा था, अतः उन्होंने उसका सहारा लिया और यह भूल गए कि एक वशेष प्रसंग पर उच्च न्यायालय ने यह निर्णय रह कर दिया था। आगे उन्होंने यह दावा किया कि अनुवाद सही है और, जैसा कि तिलक ने सुझाया है, जूरी का समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ''यह बकवास है--बिल्कुल वाहियात! खुराफात!! आप दण्ड संहिता के संरक्षक हैं और यह संहिता ही पत्रों की रक्षक है।'' अन्त में, उन्होंने तिलक के वक्तव्य का निचोड़ इस प्रकार पेश किया-''यदि आप स्वराज नहीं दे देते या उसे क्रमशः देने नहीं लग जाते, तो हम बम फेंकते रहेंगे-उसे बंद नहीं करेगे।''
न्यायाधीश डावर ने 22 जुलाई, 1902 को सात बजे सायंकाल सूरी को मामले का सारांश समझाना शुरू किया, जो बहुत ही संक्षिप्त, किन्तु तोड़ा-मरोड़ा हुआ था। पहले ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि मुकदमा उसी दिन समाप्त हो जाएगा। इससे स्पष्ट था कि यह सारा नाटक दुखांत ही होगा। संध्या को आठ बजे जूरी गंगा फैसले पर पहुंचने के उद्देश्य से सोच-विचार करने के लिए उठ गए। अदालत में इस समय भयंकर शान्ति छाई हुई थी। हरेक के चेहरे पर चिन्ता झलक रही थी। केवल तिलक ही, जिनका भाग्य-निर्णय होने जा रहा था, अविचल खड़े रहे। इस बीच अपने मित्र खापर्डे से उन्होंने कहा-''दादा साहब, आज इस खेल का रंग-ढंग दूसरा ही दीख रहा है। लगता है, इस बार आजीवन काले पानी का दण्ड मिलेगा। हमारी आपकी यह शायद अन्तिम भेंट है!''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट