जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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दिसम्बर 1916 के अन्तिम सप्ताह में जब लखनऊ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, उस समय स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन काफी जड़ पकड़ चुका था। यह अधिवेशन कांग्रेस के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस अधिवेशन के अध्यक्ष अम्बिका चरण मजुमदार के शब्दों में ''यदि कांग्रेस की एकता सूरत में पुराने फ्रांसीसी बाग के मलबे में दफना दी गई, तो लखनऊ के रंगीले नवाब वाजिद अली शाह के केसर बाग में वह पुनः पैदा हो गई।
होम रूल लीग की विशेष रेलगाड़ी से, जिसका प्रबन्ध तिलक के समर्थकों ने किया था, उनकी बम्बई से लखनऊ तक की यात्रा एक विजयी जुलुस के रूप में हुई। जिस किसी भी स्टेशन पर वह रेलगाड़ी रुकी, वहां लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया और ''तिलक महाराज की जय'' के नारों से गगन-मण्डल गूंज उठा। यद्यपि गाड़ी देर से बहुत रात गए लखनऊ पहुंची, फिर भी वहां उनका जो भव्य स्वागत हुआ, वह अभूतपूर्व था। स्टेशन पर लोगों की एक विशाल भीड़ उनके स्वागतार्थ प्रतीक्षा में खड़ी थी। गाड़ी से उतरने पर उनके उत्साही प्रशंसकों ने इस बात का आग्रह किया कि वे उनकी सवारी गाड़ी को स्वयं खींच कर उनके खेमे तक ले जाएंगे और ले भी गए।
यद्यपि आठ वर्षों के लम्बे अरसे के बाद तिलक कांग्रेस के मंच पर दिखाई पड़ रहे थे, फिर भी वह लखनऊ कांग्रेस में एक ऐसी हस्ती थे, जिस पर सबकी नजरें केन्द्रित थीं। एक साथ बैठ कर परस्पर विचार-विनिमय कर रहे नरम और गरम दलवालों को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी। इससे भी अधिक हर्ष की बात थी लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुआ समझौता। कांग्रेस के अधिवेशन के साथ-साथ मुस्लिम लीग का भी अधिवेशन लखनऊ में हुआ। इस प्रकार यह पहला ही अवसर था, जब भारतीय राजनीति की तीनों धाराएं मिलकर एक हो गईं और उन्होंने सरकार के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा कायम किया।
लखनऊ कांग्रेस के मुख्य प्रस्ताव के दो पहलू थे। पहले से पृथक निर्वाचन द्वारा प्रान्तीय विधानमण्डलों में मुसलमानों के लिए राजी-खुशी से सीटें आरक्षित करके हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न का समाधान ढूंढ़ निकाला गया, जबकि प्रस्ताव के दूसरे भाग के द्वारा संवैधानिक सुधार की योजना बनाई गई, ताकि भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अन्दर पराधीन देश के स्तर से ऊपर उठ कर एक स्वशासी उपनिवेश की हैसियत से शासन में बराबर का हिस्सेदार बन सके। इस प्रस्ताव को पास कराने में तिलक ने एक प्रमुख हिस्सा अदा किया, किन्तु कांग्रेस ने उनकी इस बात को, कि ऐसा करने के लिए कोई समय निर्धारित कर दिया जाए, स्वीकार नहीं किया।
लखनऊ कांग्रेस से देश के राजनैतिक जीवन को एक नया बल-एक नया उत्साह मिला; एक नई शक्ति-एक नई दिशा मिली। 1908 से जिस निराशा और अनैतिकता ने देश को जकड़ रखा था, उसके स्थान पर स्फूर्ति एवं एकता की भावना का संचार हुआ, जब स्वराज की अपनी मांग को व्यापक आधार देकर कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार को एक नई चुनौती दी। जैसा कि ब्रिटिश सरकार का कहना था, यदि युद्ध लोकतन्त्र की रक्षा के लिए किया जा रहा था, तो वह भारत की राजनैतिक अभिलाषाओं को पूरा करने में अब और अधिक टाल-मटोल नहीं कर सकती थी। नौकरशाही को लखनऊ कांग्रेस की मांग से बड़ी निराशा हुई। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट के बीज बोने के सभी सरकारी प्रयत्नों को तिलक की राजनैतिक कुशलता और जिन्ना की देशभक्ति ने विफल कर दिया और नौबत यहां तक आ पहुंची कि नरम दलवालों ने भी सरकार की और से मुंह मोड़ लिया।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट