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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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27 अप्रैल, 1918 को वाइसराय ने जो युद्ध सम्मेलन बुलाया था, उसमें उन्होंने तिलक को आमंत्रित नहीं किया था। अतः इसका जिक्र करते हुए मान्टेग्यू ने लिखा-

''जहां तक तिलक का सम्बन्ध है, यदि मैं वाइसराय होता, तो मैं उनको किसी भी हालत में दिल्ली अवश्य बुलाता। इस समय वह संभवतः भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हैं और यदि वह चाहें, तो युद्ध में बहुत अधिक सहायता कर सकते हैं। उनके वहां न रहने से यह बराबर कहा जाएगा कि हमने सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्तियों को चुनने से इन्कार कर दिया।''

यह पहले ही देखा जा चुका है कि युद्ध की घोषणा होते ही तिलक ने सरकार को संकट काल में हर प्रकार की सहायता करने का आश्वासन स्वेच्छया दिया था और उसमें अपनी आस्था प्रकट की थी। किन्तु जवाब में सद्भाव प्रदर्शित करना तो दूर रहा, सरकार इस आश्वासन को सच मानने को भी तैयार न हुई। उसने युद्ध के पहले दो वर्षों में राष्ट्रवादियों (नेशनलिस्टों) का समर्थन या सहायता तक नहीं मांगी। लेकिन जब 1917 में युद्ध का पासा ब्रिटेन के विरुद्ध पलटने लगा, तब सरकार को भारत में रंगरूटों की भर्ती करने तथा लड़ाई के साधन जुटाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इसके बाद भी सरकार राष्ट्रवादी (नेशनलिस्ट) नेताओं को तंग करती रही-यहां तक कि सेना में भारतीयों की कमीशण्ड पदों पर भरती करने की उनकी मांग को भी उसने ठुकरा दिया।

फिर स्वभावतः ही सेना में भरती-सम्बन्धी तिलक के विचार बदल गए। उन्होंने पहले कहा था कि ''यदि मेरी आयु और पके बालों पर ध्यान न दिया जाए, तो मैं युद्ध में जाने को तैयार हूं।'' किन्तु वह व्यावहारिक व्यक्ति थे, इसलिए महात्मा गांधी की तरह वह इस भर्ती के बारे में केवल नैतिक दृष्टिकोण ही नहीं अपना सकते थे। फलतः 20 फरवरी, 1917 को 'केसरी' में उन्होंने लिखा-''सरकार द्वारा भारतीयों के लिए सेना में भरती का द्वार खोलने का आखिर मतलब क्या है? इसके अर्थ को समझाने के लिए हमें स्पष्ट बात करनी होगी। इसका अर्थ केवल यही है कि सरकार का काम आज हमारी सहायता के बिना नहीं चल सकता।''

लॉर्ड चेम्सफोर्ड द्वारा दिल्ली सम्मेलन में तिलक को आमंत्रित न करने की भूल को महसूस करने के बाद बम्बई के गवर्नर लॉर्ड विलिंगडन ने 10 जून, 1918 को बम्बई में बुलाए गए युद्ध सम्मेलन में उन्हें आमंत्रित किया। किन्तु जब अपने उद्घाटन भाषण में गवर्नर ने होम रूल लीग के विषय में बुरा भला कहा और तिलक के भाषण में दो बार हस्पक्षेप किया, तब तिलक इसके विरोध-स्वरूप सम्मेलन से उठकर चले गए, जिनके पीछे और भी अनेक नेता सम्मेलन का त्याग कर चले गए। इस अपमानजनक व्यवहार से क्षुब्ध तिलक ने पूना की एक सभा में भाषण करते हुए यह स्पष्ट घोषणा की :

''अंग्रेज चाहते हैं कि आप युद्ध के लिए केवल सिपाही भेजें। वे हमसे कहते हैं कि 'भारत के ऊपर विपत्ति आई है।' लेकिन इससे हमें क्या मतलब? हम ऐसे भारत की रक्षा क्यों करें, जिसमें हमें कोई अधिकार नहीं और जहां हमसे गुलामों की तरह व्यवहार किया जाता है।...सरकार को चाहिए कि वह अपने बास्तविक कार्यों से भारतीयों में ऐसी भावना उत्पन्न करे, जिससे वे यह अनुभव करने लगे और कह सकें कि हम देश के लिए मरने-मिटने को तैयार हैं। तभी मुझे विश्वास है, हम एक करोड़ सिपाहियों की सेना तैयार कर सकेंगे। किन्तु भारत की मांग स्वीकार न करके ब्रिटिश सरकार गलत नीति अपनाए हुए है। हम अपने लोगों से क्या कहें? क्या यही कि सेना में भरती होकर इन अंग्रेजों के जुल्म को और बढ़ावा दो?''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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