जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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ऐसे अपमानजनक वक्तव्यों को वापस लेने की औपचारिक नोटिस चिरोल को 1 अवतूबर, 1915 को दी गई और इसका सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर किंग्स बेन्च डिवीजन, लंदन में एक मुकदमा दायर किया गया, जिसकी सुनवाई 29 जनवरी, 1919 को हुई। इस बीच सरकार ने चिरोल की सहायता के लिए पूरा प्रयत्न किया और उसके बचाव के लिए आवश्यक प्रमाण एकत्र करने के उद्देश्य से एक आई० सी० एस० अफसर खास तौर से नियुक्त किया गया। इस मुकदमे में सरकार कितनी गहरी दिलचस्पी ले रही थी-यह भारत-मन्त्री (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) के परामर्शदाताओं द्वारा तैयार की गई इस निर्देश-टिप्पणी से स्पष्ट है :
''सर वैलेण्टाइन चिरोल पर इस समय मानहानि का जो मुकदमा चल रहा है, वह अगर सही साबित हो गया, तो न केवल चिरोल को अपनी सार्वजनिक सेवाओं के कारण दण्ड का भागी होना पड़ेगा, बल्कि इससे तिलक का राजनीतिक चरित्र भी निष्कलंक सिद्ध होगा, जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत ही बुरी और खतरनाक बात होगी। इसलिए हमें इस मुसीबत में बेचारे चिरोल का साथ तो देना ही है, साथ ही हमें यह भी ख्याल रखना है कि अगर तिलक यह मुकदमा जीत गए, तो सरकार के लिए उसके राजनैतिक परिणाम अत्यन्त घातक सिद्ध होंगे। इन दोनों बातों के अलावा एक और बात है, जो इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण है। यह निश्चित है कि इस मुकदमे से यह बात खुल जाएगी कि जिन सूचनाओं पर चिरोल की यह पुस्तक आधारित है, वे उसे सरकारी सूत्रों से हासिल हुईं और इस प्रकार यदि तिलक यह मुकदमा जीत गए, तो सम्भव है कि वह मानहानिजनक सामग्री प्रकाशित करने का अभियोग सरकार पर लगाकर उसके खिलाफ भी मुकदमा दायर कर दें।''
वाइसराय की कार्यपालिका के एक सदस्य ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया था-
''यदि यह व्यावहारिक रूप से निश्चित नहीं हो जाता कि सफाई पक्ष मुकदमा जीतेगा ही, तो मुकदमे के दौरान यह साबित होना बहुत ही अनुचित होगा कि ''इण्डियन अनरेस्ट'' बम्बई सरकार की छत्रछाया में लिखी गई पुस्तक है। यदि तिलक इस मुकदमे को जीत लेंगे, तो अनेक उलझनें पैदा हो जाएंगी। अतः मेरा विचार है कि इन परिस्थितियों में हम न केवल चिरोल की यथाशक्ति हर कानूनी सहायता करने के लिए बाध्य हैं, बल्कि हमें वह जरूर करनी चाहिए, ताकि मुकदमे में उनकी जीत हो।''
ताई महाराज के मुकदमे की तरह ही, इस मुकदमे में भी सरकार हाथ धोकर तिलक के पीछे पड़ गई और परिणामस्वरूप अनेक परेशानियों के बीच उन्हें अकेले ही इस विकराल सुरसा का सामना करना पड़ा। इस मुकदमे की सुनवाई न्यायाधीश डार्लिग और एक विशेष सूरी के सम्मुख शुरू हुई। तिलक की ओर से सर जान साइमन ने और चिरोल की ओर से सर एडवर्ड कार्सन ने जिरह-बहस की। चिरोल के विरुद्ध मानहानि के छः अभियोग लगाए गए। सर जान साइमन को अपना पक्ष प्रस्तुत करने में सात घण्टे लगे, जिसके बाद उनके सहयोगी वकील ने तिलक से पूछ-ताछ की। कार्सन ने तिलक से जो जिरह की, वह मुकदमे में विशेष महत्व रखती है। 'इंग्लैण्ड के आतंककारी वकील' के रूप में सुपरिचित कार्सन ने जिरह के दौरान लगभग 15 घण्टों तक तिलक से अनेक कड़े प्रश्न पूछे और इस बीच कई बार तो कहासुनी तक की नौबत आ पहुंची, जब कार्सन तैश में आ गए। और एक बार तो फुफकारते हुए उन्होंने यहां तक अपना विष वाण छोड़ा-''तिलक के चरित्र का मूल्य! ऐसा कोई भी सिक्का मौजूद नहीं, जो उनके चरित्र का मूल्य हो।''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट