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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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कार्सन सफाई पक्ष के वकील थे, इसलिए उनके ऐसे आक्रमण का लक्ष्य तो हम समझ सकते हैं, किन्तु कोई न्यायाधीश पक्षपात करेगा-ऐसी उम्मीद न थी। मगर जैसा पहले बताया जा चुका है, न्यायाधीशों के पक्षपातपूर्ण फैसले ब्रिटिश राज में कोई नई बात न थी और न्यायाधीश डार्लिग ने भी यही कर दिखाया। उन्होंने इस मामले में व्यक्तिगत मानहानि की अपेक्षा राजनैतिक पहलू को अधिक महत्व दिया और सूरी के सम्मुख मामले का जो निचोड़ रखा, वह बिलकुल पक्षपातपूर्ण था। उन्होंने इस प्रसंग में जूरी को ईसप की कहानी सुनाकर उसका मनोविनोद किया, कि कैसे एक सिपाही द्वारा पकड़े जाने पर बिगुलवादक ने इस आधार पर जान की भीख मांगी थी कि वह लड़नेवाला सिपाही नहीं है, मगर सिपाही ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी और कहा था कि तुम्हारे बिगुल बजाए बिना शत्रु की सेना आगे नहीं बढ़ सकती थी। अतः न्यायाधीश डार्लिग ने कहा कि ''यह सच है कि तिलक के जिस प्रकार से रैंड की कटु आलोचना की थी, उस प्रकार से जैक्सन की नहीं थी, किन्तु उन्होंने सरकारी अधिकारियों के प्रति घृणा भाव उत्पन्न करके ऐसे अपराध के लिए उचित वातावरण तैयार कर दिया था, जो काफी था। इसलिए क्या यह कहना अनुचित होगा कि यही वास्तव में इस अपराध के ठीक उसी प्रकार मूल कारण हैं, जिस प्रकार कि अपने शिष्यों द्वारा किए गए अपराधों की मूल जड़ फागिन ही थे।''

ऐसा अभियोग सुनने के बाद जूरी को फैसले पर पहुंचने में 25 मिनट से अधिक समय न लगा और उसने चिरोल के पक्ष में निर्णय दे दिया। फलतः जिस मुकदमे पर तिलक ने काफी धन खर्च किया था, उसे वह हार गए। इस पर प्रिवी काउंसिल में अपील करने का विचार भी आया, मगर उन्होंने सर जान साइमन के परामर्श पर इसे छोड़ दिया, अपील नहीं की। ब्रिटिश न्यायालय में अपने चरित्र को निष्कलंक सिद्ध करने के प्रयत्न से उन पर बहुत बड़ा आर्थिक भार आ पड़ा, क्योंकि उन्हें प्रतिवादी, चिरोल का खर्च भी अदा करना पड़ा। लेकिन इस विपत्ति से, जिसमें पड़कर कमजोर दिल का आदमी टूट गया होता, वह तनिक भी विचलित न हुए और 27 मार्च को उन्होंने खापर्डे को लिखा-

''हमें ऐसे संकट में धैर्य नहीं खोना चाहिए और विफलताओं से घबड़ाना नहीं चाहिए। यह एक खेल था। यदि हम इसमें बाजी मार ले जाते, तो केवल व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी हमें नौकरशाही से भिड़ने में कुछ आसानी होती। हमारी यह हार हमारी किसी त्रुटि या गलती से नहीं, बल्कि इसलिए हुई है कि ब्रिटिश न्यायाधीश और सूरी किसी व्यक्ति के निजी चरित्र और उसके राजनै तिक विचारों के अन्तर को नहीं समझ सके। परिणामस्वरूप हमारा वह हार ब्रिटिश न्याय की अक्षमता का ही एक प्रमाण है, जिससे हमारे देशवासियों की आंखें खुल जाएंगी। अतः इस अदालती फैसले का उपयोग हमें इसी दृष्टि से करना चाहिए। हर तरह से हम फायदे में हैं, बशर्ते हम निराश और पस्तहिम्मत न हों।''

तिलक ने इसी लहजे में अपने भतीजे धोदोपन्त विद्वान्स को भी पत्र द्वारा आश्वस्त किया-''मेरी चिन्ता मत करो। मैं इससे भी अधिक भयंकर विपत्तियों से गुजरा हूं। यदि मैं उनके सम्मुख घुटने टेक देता, तो आज जीवित नहीं होता। जिस प्रकार मैंने अन्य संकटों पर विजय प्राप्त की, उसी प्रकार इस पर भी पा लूंगा। सभी लोगों से कह दो कि न्यायालय के इस निर्णय से मेरे स्वास्थ्य या कार्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है। वास्तव में मैं अब ''होम रूल लीग के प्रतिनिधि-मण्डल की प्रतीक्षा कर रहा हूं, जो यहां आ रहा है, ताकि इस देश में मैं अपना प्रचार कार्य आरम्भ कर सकूं।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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