उपन्यास >> वापसी वापसीगुलशन नंदा
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गुलशन नंदा का मार्मिक उपन्यास
''No it is impossible, मेजर रशीद, तुम्हें जरूर कोई ग़लतफहमी हुई है।''
''सर, मेरी आंखें एक बार धोखा खा सकती हैं, बार-बार नहीं। मैं पूरी ज़िम्मेदारी से कह रहा हूं। आप तक बात पहुंचाने से पहले मैंने कई दिनों तक ग़ौर से उस क़ैदी की जांच कर ली है।''
''ओह! आई सी...क्या नाम है उसका?'' ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी आदत के मुताबिक भवों को सिकोड़ते हुए पूछा।
''रणजीत!''
''रैंक?''
''कैप्टन!''
''रेजीमेंट?''
''मराठा...थर्टी थ्री मराठा।''
''लेकिन तुम जानते हो मेजर, यह क़दम तुम्हें मौत के मुंह में ले जा सकता है। तुम अपने-आप ही दुश्मन का शिकार बन सकते हो।'' ब्रिगेडियर उस्मान ने मेजर रशीद की आंखों में झांकते हुए कहा।
''फ़ौज में भर्ती होने से पहले मैंने इस बात पर अच्छी तरह ग़ौर कर लिया था सर...सिपाही तो हर वक़्त कफ़न बांधे रहता है। वतन की खातिर मर जाने से बढ़कर और कौन-सी शहादत हो सकती है।'' मेजर रशीद जोश में आकर भावुक स्वर में बोला।
ब्रिगेडियर उस्मान चुपचाप इस नौजवान को देखता रहा जो अपनी जान देने पर तुला हुआ था। जब ब्रिगेडियर ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया तो मेजर रशीद ने पूछा-''तो फिर आपने क्या सोचा सर?''
ब्रिगेडियर उस्मान की भवें कुछ ढीली हुईं। मेजर रशीद के दृढ़ साहस ने उसे कुछ सोचने पर विवश कर दिया था। उसने पूछा-''तुम्हारे उस क़ैदी वाला जत्था किस दिन लौट रहा है?''
''अगले जुम्मे के दिन।''
''लिस्टें जा चुकीं?''
''जी हां।''
''कोई फ़ैसला करने से पहले मैं खुद उस क़ैदी को देखना चाहूंगा।''
''बड़ी खुशी से सर।'' मेजर रशीद प्रसन्न चित्त होकर बोला। उसे अपने सोचे हुए प्लान की सफलता की आस बंधने लगी थी।
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