उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
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एक नदी दो पाट
विनोद को उसका भोला मुखड़ा बहुत भला लगा। उसके स्वप्न वास्तविकता का रूप धारण करने लगे और इसी भावना के प्रवाह में उसने हाँ कह दी। वह लज्जा और प्रसन्नता के उन्माद से झूमती हुई दूसरे कमरे में भाग गई।
विनोद की भाभी ने लड़की की माँ से उसका नाम पूछा। माँ ने बड़ी नम्रता से बताया-कामिनी। विनोद की धमनियों में बिजली दौड़ने लगी। कितना प्यारा नाम था और कितना प्यारा मुखड़ा!
कामिनी! आज जब वह अपनी दुल्हिन से मिलने प्रथम बार जा रहा था तो उसके कानों में वही नाम गूंज रहा था। उसकी आँखों में बड़ी भोली-भाली छवि बसी हुई थी। उसने सोचा, आज भी वह वैसे ही लजा रही होगी।
जब पर्दा उठाकर वह दुल्हिन के कमरे में पहुँचा तो वह सहम-कर बैठ गई। इतने बड़े पलंग पर वह गठरी बनी एक कोने में बैठी थी। ब्याह के जोड़े ने उसके शरीर को सिर से पैर तक ढक रखा था। यद्यपि विनोद ने नये विचारों के संसार में जन्म लिया था, फिर भी उसे ब्याह का यह सदियों पुराना ढंग बहुत पसन्द था।
दुल्हिन का एक नये घर में आगमन और तनिक-सी आहट पर भी घबराहट से उसका सिमट जाना-इन बातों में एक विशेष ही अन्दाज था। आज जीवन-भर की कामनाएँ लपेटकर उसने झोली में छिपा रखी थीं।
विनोद ने कोट उतारकर असावधानी से एक ओर फेंक दिया और पलंग के साथ वाली खिड़की खोल दी। हवा के नाचते हुए झोंके दुल्हिन के घूँघट से खेलने लगे। उसे आँचल सँभालना कठिन हो रहा था।
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