उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
|
0 5 पाठक हैं |
एक नदी दो पाट
'जान पड़ता है यह खुली हवा आपको पसन्द नहीं?' उसकी घबराहट को अनुभव कर मुस्कराते हुए विनोद बोला, 'कहिए तो बन्द कर दूं?'
'ऊँहूँ।' धीरे से होंठ हिलाते हुए उसने उत्तर दिया।
'इस ऊँहूँ को क्या समझूँ, हाँ कि ना?' विनोद ने बनते हुए प्रश्न किया।
'जो भी आप समझ लें!' सुरीली आवाज़ ने उत्तर दिया।
विनोद ने हल्की-सी हँसी कमरे में छोड़ी और उसके आँचल का पल्लू अपनी उँगली में लपेटते हुए बोला, 'मैं तो डर रहा था।'
'क्यों?'
'यह सोचकर कि कहीं मेरी कामिनी गूँगी तो नहीं।'
'तो अब?'
'अब डर कैसा? सुरीली ध्वनि जो कानों में गूँज रही है!'
'केवल ध्वनि से क्या बनता है?' कामिनी ने कुछ दृढ़ता से कहा और फिर स्वयं ही कहने लगी-'अभी तो आपने ध्वनि ही सुनी है!'
'ओह, तो मेरी कामिनी बातों में भी मुझे पछाड़ने वाली हैं!'
'नहीं तो! आप मेरे स्वामी हैं, भला मैं...!'
'अब रहने दो और सच बताओ, तुम भी इस बन्धन से प्रसन्न हो न?'
|