उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
|
0 5 पाठक हैं |
एक नदी दो पाट
विनोद ने देखा, उसके इस प्रश्न पर वह लजाकर सिमट गई और पहले की भाँति चुप हो गई। विनोद उसके पास बैठ गया। जैसे ही उसने उसके कंधों पर हाथ रखे, वह एक बाँस के समान काँपकर रह गई।
'कामिनी...कितना प्यारा नाम है! मुखड़ा वह, जिसकी एक झलक ही बेचैन किए हुए है...रहा स्वभाव, सो वह कुछ तीखा भी हुआ तो निपट लेंगे।'
कामिनी चुप रही। उसकी घबराहट और कम्पन को वह अभी तक अनुभव कर रहा था। उसके धड़कते दिल की आवाज़ उसके कानों में पहुँच रही थी। विनोद को विश्वास था कि इस धड़कन और कंपन को वह एक झटके में शान्त कर देगा, जब चन्द क्षणों में वह उसकी छाती में चिपकी मधुरिम निःश्वासों को जाँच रही होगी।
विनोद ने छत की बत्ती बुझा दी और टेबल-लैम्प जला दिया। इस हल्के उजाले की आड़ में विनोद ने कामिनी के सिर से भारी रेशमी टुपट्टा सरका दिया। घूँघट की आड़ से निकलते ही कामिनी ने अपना मुख मेहँदी-रचे हाथों में छिपा लिया, मानो चाँद एक बदली से निकल तनिक-सी झलक दिखाए बिना ही दूसरी बदली में जा छिपा हो।
अब विनोद की हृदयगति तीव्र होने लगी। इस रात के मौन में दो धड़कनों की ध्वनि स्पष्ट सुनाई दे रही थी। वह बार-बार हाथ बढ़ाकर कामिनी के शरीर को छूना चाहता; परन्तु उसकी उँगलियाँ हवा में ही खेलकर रुक जातीं। वह उससे मन की चन्द बातें कह देना चाहता था; परन्तु उसका गला सूख गया था। वह कुछ भी कहने का साहस नहीं कर पा रहा था।
एकाएक उसकी मचलती हुई उँगलियाँ हिलीं, उसके रुके हुए पाँव उठे और वह सीधा कामिनी के सामने जा खड़ा हुआ। वह संकोच से गठरी बनती जा रही थी। विनोद ने काँपते हुए हाथों से उसे छुआ; किन्तु वह सिमट गई।
|