आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?
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मनुष्य जितना निर्भय होगा, उतना ही वह महान् कार्यों का सूत्रपात करेगा।
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शक्ति की असली परीक्षा किसी तरह सफलता प्राप्त कर लेना भर नहीं है, वरन् उसके सदुपयोग से ही प्राप्तकर्ता का गौरव आँका जाता है।
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जो स्वयं कुछ नहीं कर सकते और दूसरों को भी कुछ करते नहीं देख सकते, उनकी दुर्गति निश्चित है।
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उदासी जीवन को असफलताओं का श्मशानं बनाकर रख देती है। उसे एक प्रकार का अभिशापही कहना चाहिए ।इस विपत्ति से जो ग्रसित हो गये हैं, उन्हें अपने उद्धार का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए। ६ यदि किसी व्यक्ति ने अपनी उन्नति याविकास कर लिया; किन्तु उससे समाज को कोई लाभ नहीं मिला, तो उसकी सारी उपलब्धि व्यर्थ है।
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मधुरभाषी जीभ और सद्भाव संपन्न हृदय़ को मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि कहा गया है,पर यदि वे कटुवचन एवं दुर्भाव से भरे हों, तो उनकी निकृष्टता भी असंदिग्ध है।
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जीवन में बाधाओं और असफलताओं को पार करते हुए लक्ष्य की ओर साहसपूर्वक बढ़ते जाना ही मनुष्य की महानता है।
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जहाँ केवल विचार है या केवल क्रिया अथवा दोनों का अभाव है, वह व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता।
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बड़े-बड़े उपदेश, व्याख्यान, लेखनबाजी का समाज पर प्रभाव अवश्य पड़ता है; किन्तु वहक्षणिक होता है। किसी भी भावी क्रान्ति, सुधार, रचनात्मक कार्यक्रम के लिए प्रारंभ में विचार ही देने पड़ते हैं; किन्तु सक्रियता और व्यवहार कासंस्पर्श पाये बिना उनको स्थायी और मूर्त रूप नहीं देखा जा सकता।
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किसी भी समाज या राष्ट्र की सबसे बड़ी कमजोरी उसके नागरिकों की आत्मिक दुर्बलताहुआ करती है। यह दुर्बलता जहाँ होगी, वहाँ सारे साधन होते हुए भी शोक, संताप, क्लेश, कलह, अभाव और दारिद्रय का ही वातावरण बना रहेगा।
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