आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?
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नाम और यश की चाहना से दूर रहने वाले, प्रतिष्ठा, पद और ख्याति से बचने वाले सच्चे लोकसेवक सचमुच ही इस धरती के देवदूत कहलाते हैं।
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संसार में बुराइयाँ इसलिए बढ़ रही हैं कि बुरे आदमी अपने बुरे आचरणों द्वारादूसरों को ठोस शिक्षण देते हैं। उन्हें देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है। कि इस कार्य पर इनकी गहरी निष्ठा है, जबकि सद्विचारों के प्रचारक वैसेउदाहरण अपने जीवन में प्रस्तुत नहीं कर पाते। वे कहते तो बहुत कुछ हैं, पर ऐसा कुछ नहीं करते, जिससे उनकी निष्ठा की सच्चाई प्रतीत हो।
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दुर्भावना के वातावरण में पंचशील के सिद्धान्त अंतर्राष्ट्रीय जगत् में भले ही सफल नहुए हों, पर पारिवारिक जगत् में वे सदा सफल होते हैं यथा -
१- परस्पर आदर-भाव से देखना
२- अपनी भूल स्वीकार करना,
३- आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
४- भेदभाव न रखना।
५- विवादों का निष्पक्ष निपटारा।
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फलासक्ति, कर्त्तापन का अभिमान एक बहुत बड़ी फिसलन है, जिससे गिरने के बाद अधिकांश लोग उठ नहीं पाते और नीचे ही गिरते चले जाते हैं।
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किसी भी बात का समाज में प्रचार करने के लिए पहले उसे अपने जीवन में अपनानाआवश्यक है। समाज के अगुवा लोग जैसा आचरण करते हैं, उसका अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक कार्यकर्ता और नेता लोग जब अपनेप्रत्यक्ष आचरण और उदाहरण के द्वारा जनता को चरित्र निर्माण का मार्ग दिखाएँगे, तो वह दिन दूर नहीं होगा, जब भ्रष्टाचार हमारे समाज से दूर हटजाएगा।
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मनुष्य की श्रेष्ठता और निकृष्टता दो कसौटियों पर परखी जा सकती है और वे हैं-धनऔर नारी। इन दो के संबंध में जिनका दृष्टिकोण धर्म बुद्धि से संचालित होता है, जो इन दो प्रलोभनों के आगे ईमानदार बने रहते हैं, वस्तुत: वे ही खरेआदमी हैं।
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समाज हितैषी व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे समाज में इस धारणा का प्रचार करेंकि किसी प्रकार की हराम की कमाई नहीं, वरन् ईमानदारी का पैसा ही मनुष्य को सुख और शान्ति प्रदान कर सकता है।
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