लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत

उत्तिष्ठत जाग्रत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16272
आईएसबीएन :000000000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?


¤ ¤ ¤

सच्चा साथी प्यार करता है, सलाह देता है तथा सुख-दु:ख में सहयोग भी देता है।इसके अलावा वह शक्ति और सुरक्षा भी दे और प्रत्युपकार की जरा भी अपेक्षा न रखे, तो वह सोने में सुहागा हो जाएगा-ईश्वर ही ऐसा साथी है।

¤ ¤ ¤

अपने प्रति उच्च भावना रखिए। छोटे से छोटे काम को भी महान् भावना से करिए। बड़ीसे बड़ी विपत्ति में भी निराश न होइए। आत्म-विश्वास एवं आशा का प्रकाश लेकर आगे बढ़िए। जीवन के प्रति अखण्ड निष्ठा रखिए और फिर देखिए कि आप एकस्वस्थ, सुन्दर, सफल एवं दीर्घजीवन के अधिकारी बनते हैं या नहीं?

¤ ¤ ¤

सत्प्रेरणाएँ प्रत्येक मनुष्य के अंत:करण में छिपी रहती हैं। दुष्प्रवृत्तियाँ भी उसीके अंदर होती हैं। अब यह उसकी अपनी योग्यता, बुद्धिमत्ता और विवेक पर निर्भर है कि वह अपना मत देकर जिसे चाहे उसे विजयी बना दे।

¤ ¤ ¤

संतोष करने का अर्थ है-आपने प्रकृति के साथ मित्रता कर ली है। कुछ दिन इस तरह काअभ्यास डाल लेने से सुख और दुःख दोनों का स्तर समान हो जाएगा। तब केवल अपना ध्येय-जीवन लक्ष्य प्राप्त करना ही शेष रहेगा, इसलिए समझना पड़ता हैकि दु:ख-सुख इनमें से किसी के प्रभाव में न पड़ो, दोनों का मिला-जुला जीवन ही मनुष्य को लक्ष्य तक पहुँचाता है। जीवन लक्ष्य का प्रादुर्भाव दु:ख औरसुख के सम्मिलन से होता है।

¤ ¤ ¤

मृत्यु सदा सिर पर नाचती खड़ी रहती है। इस समय साँस चल रही है, अगले ही क्षण बंदहो जाय इसका क्या ठिकाना? यह सोचकर इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिए और थोड़े जीवन में क्षणिक सुख के लिए पाप क्यों कियाजाए, जिससे चिरकाल तक दु:ख भोगने पड़े, ऐसा विचार करना चाहिए।

¤ ¤ ¤

धन, यौवन अस्थिर हैं। छोटे से रोग या हानि से इनका विनाश हो सकता है। इसलिएइनका अहंकार न करके-दुरुपयोग न करके ऐसे कार्यों में लगाना चाहिए, जिससे भावी जीवन में सुख-शान्ति की अभिवृद्धि हो।

¤ ¤ ¤

असावधान-आलसी पुरुष एक प्रकार का अर्ध मृत है।

¤ ¤ ¤

बिना सिद्धान्तों को जाने केवल अनुभव निर्बल है। और बिना अनुभव का ज्ञान निष्फल है।

¤ ¤ ¤

धन्य वे हैं, जो अपने पराक्रम का उपयोग केवल असुरत्व विनाश के लिए करते हैं औरउस पराक्रम का तनिक भी दुरुपयोग न करके अपने को जरा भी पाप-पंक में गिरने नहीं देते।

¤ ¤ ¤

उन्नतिशील होना पूर्णतया भाग्य पर निर्भर नहीं है। विचारपूर्वक देखने से पता चलता हैकि परमात्मा से जो साधन मनुष्यों को मिले हैं, वे प्राय: समान हैं। हर किसी को दो हाथ, दो पाँव, नाक, आँख, मुख आदि एक जैसे मिले हैं। विचारविद्या आदि के साधन भी प्रत्येक मनुष्य अपनी लगन के अनुसार प्राप्त कर सकता है। भाग्यवादी सिद्धान्त कायरों और कापुरुषों का है। पुरुषार्थ एकभाव है और उसका कर्ता पुरुष है। अर्थात् मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण अपने पौरुष से करता है। अपनी पूर्व असमृद्धि से किसी को अपनी क्षुद्रतास्वीकार नहीं कर लेनी चाहिए।बलवान् आत्माएँ प्रतिकूल दिशा से भी उन्नति करती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book