आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?
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साधनों की स्वल्पता, परिस्थितियों की विकटता होते हुए भी प्रचण्ड संकल्प शक्ति औरअदम्य साहसिकता के बल पर मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है।
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विचारवान् अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहराते, वरन् गंभीरतापूर्वक यहखोजते हैं कि किन त्रुटियों के कारण पिछड़ना पड़ा।
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उस व्यक्ति की भला कोई क्यों सहायता करेगा, जो हेय स्थिति में पड़े रहने मेंसंतुष्ट है और दुर्भाग्य के सामने नतमस्तक होकर गिर पड़ा है।
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मनमर्जी पर चलने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि जो सोचा जा रहा है, उसमें किंचित्लाभ के अतिरिक्त कहीं कोई भयानक हानि तो छिपी नहीं पड़ी है।
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प्रेम संसार की वह ज्योति है, जिसका प्रकाश पाकर हर व्यक्ति अपने अंतरंग केकषाय-कल्मषों को दूर करता और हृदय को पवित्र-निर्मल बनाता है।
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नियति क्रम से हर वस्तु का, हर व्यक्ति का अवसान होता है। मनोरथ और प्रयास भीसर्वदा सफल कहाँ होते हैं? यह सब अपने ढंग से चलता रहे, पर मनुष्ये भीतर से टूटने न पाए, इसी में उसका गौरव है। जिस प्रकार समुद्र तट पर जमी हुईचट्टानें चिर अतीत से अपने स्थान पर जमी अड़ी बैठी हैं। हिलोरों ने अपना टकराना बंद नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी कहाँ गलत है कि चट्टान ने हारनहीं मानी। वस्तुत: न हमें टूटना चाहिए और न हार माननी चाहिए।
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जीवन एक छोटा दिवस है; किन्तु है वह काम का दिन, छुट्टी का दिन नहीं। संभव हैकि किसी काम से तुम बुराई की ओर जा रहे हो; किन्तु काम न करना कभी अच्छाई की ओर नहीं ले जा सकता।
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हमारे जीवन का व्यवहार ही हमारे हृदय की सच्चाई का एकमात्र प्रमाण है।
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सबसे बड़ा और सबसे प्रथम विभूतिवान् व्यक्ति वह है, जिसके अंत:करण में उत्कृष्टजीवन जीने और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने के लिए निरन्तर उत्साह उमड़ता है।
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जो अपनी उच्च वृत्तियों की ओर ध्यान देता है, वह ऊँचा हो जाता है। जो सदाअपनी छोटी वृत्तियों की ओर ही आकृष्ट होता है, वह वास्तव में छोटा रह जाता है। के अधिकार की अहमन्यता में किसी को कटु शब्द कहना असभ्यता का परिचयदेना है।
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