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आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत

उत्तिष्ठत जाग्रत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16272
आईएसबीएन :000000000

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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?


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योग्यताओं का अभाव जीवनोन्नति में जितना बाधक होता है, उससे कहीं अधिक बाधक साहस का अभाव होता है।

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कर्तव्यपालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।

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वासनाएँ चोर के समान होती हैं। जिस प्रकार चोर अँधेरा देखकर निर्बल व्यक्ति को लूटले जाते हैं, उसी प्रकार वासनाएँ भी निर्बल इच्छा शक्ति वाले, निर्बल चरित्र वाले मूढ़ व्यक्तियों पर अपना हमला बोल देती हैं।

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जिसके जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता, उसे कुकामनाएँ शीघ्र ही प्रलोभन देने लगती हैं।

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सत्य की श्रेष्ठता सर्वोपरि है। उसमें अगर-मगर भले ही जोड़ा जाए; किन्तु स्पष्ट रूप से उसका विरोध नहीं हो सकता।

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विपत्तियों और असफलताओं की आशंका का विष पीते रहने पर साहस और पुरुषार्थ दम तोड़ देताहै। ऐसा अशुभ चिंतन जिनके पल्ले बंध जाता है, वे निराश रहते हैं और भविष्य को विपत्तिग्रस्त देखते हुए शोक-संताप में डूबे रहते हैं।

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दुःख से हानि तभी है, जब मनुष्य उनका अभ्यस्त बनकर दीन-हीन बन जाए और अकर्मण्य बनकर उनसे छुटकारा पाने का प्रयास ही छोड़ बैठे।

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केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी भी अवस्था और किसी भी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।

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आत्म-निरीक्षण और आत्म-शुद्धि की वृत्ति को. स्वभाव में लाये बिना कभी भी किसी व्यक्तिका चरित्र महान् नहीं हुआ है; बल्कि चरित्र निर्माण के ये दोनों ही महान् साधन हैं।

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जिसका मन हार जाता है, वह बहुत कुछ होते हुए भी अंत में पराजित हो जाता है। जोशक्ति न होते हुए भी मन से हार नहीं मानता, उसको दुनिया की कोई ताकत परास्त नहीं कर सकती।

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विचारों की शक्ति आग या बिजली की तरह है, उसके साथ मखौलबाजी करना खतरनाक है।

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