नई पुस्तकें >> मैं था, चारदीवारें थीं मैं था, चारदीवारें थींराजकुमार कुम्भज
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ख़ुद की टक्कर से
- नहीं है कोई
- युग बीते मगर अकेला ही हूँ मैं
- भीड़ है, धधकती आग है, सूना है
- और युद्धरत सपना फिर भी
- और क़ायम ताप में तपना फिर भी
- जाता हूँ खेतों की तरफ़ जाता हूँ
- चट्टानों से टकराता हूँ
- जल-गीत गाता हूँ
- खेलता हूँ द्वार-पार-झंकार सब
- छोड़ता हूँ, दूर छोड़ता हूँ
- हाहाकार सनी टूटी तलवार
- भूलते हुए ख़ुद को, हँसी ख़ुद की
- मिलेगी वह मुझको है तलाश जिसकी
- और कि अंततः पैदा होती है जो चमक
- ख़ुद की टक्कर से, सबके लिए।
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