नई पुस्तकें >> मैं था, चारदीवारें थीं मैं था, चारदीवारें थींराजकुमार कुम्भज
|
0 5 पाठक हैं |
पुरोवाक्
अन्यथा नहीं है कि कविता सवाल करती है और जो कविता सवाल नहीं करती है, उसकी सामाजिकता स्वतः ही संदिग्ध हो जाती है, जबकि प्रतिबद्धता का प्रश्न तो एकदम मूलभूत प्रश्न है। ऐसे में कविता के लिए अलग से कुछ भी लिखा जाना अतिरिक्त ही कहा जायेगा. वक्तव्य की अवधारणा इसी अतिरिक्त का संकेत है। कविता के साथ अथवा कविता के बारे में कवि की ओर से वक्तव्य क्यों दिया जाना चाहिए या क्यों नहीं दिया जाना चाहिए जैसे बिन्दुओं पर विस्तार से किन्तु पर्याप्त स्वीकार्य और संतोषजनक लिखा जा सकता है।
मेरी कविताओं में समय और समाज की वे विद्रूपताएं रेखांकित की गयी हैं जिनमें समकालीन राजनीति का खुल्लमखुल्ला सीधा हस्तक्षेप शामिल है, मैं डरता हूँ और लिखता हूँ, मैं डर-डरकर लिखता हूँ और लिख-लिखकर डरता हूँ, इसलिए कहा जा सकता है कि मेरी कविताएँ आधी-अधूरी हैं, अर्थात मैं आधी-अधूरी कविताओं का आधा-अधूरा कवि हूँ, फिर भी मेरी कविताएँ सवाल तो करती हैं और सवाल करना कोई कम साहसिकता नहीं है।
कविताएँ लिखते समय मैं जिस भी बेचैनी से गुज़रता हूँ, वह बेचैनी हम सबकी बेचैनी है, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मैं अपनी ठसक और अकड़ बचाकर रखता हूँ, एक कवि का इतना अधिकार तो है ही कि वह अपनी अकड़ और ठसक को बनाये और बचाये रखे। जन-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों चाहेंगे कि कविता और ख़बर की ज़िम्मेदारी पर आँच नहीं आये। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि आज की कविता में ख़बर और नारेबाज़ी का शोरगुल कुछ अधिक ही पाया जाने लगा है। कविता और ख़बर की ज़िम्मेदारी में पर्याप्त भिन्नता होती है, कविता कुछ अधिक ज़िम्मेदार नागरिक बनाती है।
- राज कुमार कुम्भज
7 मार्च 2023, होली
इन्दौर, म. प्र.।
सम्पर्क : 0731-2543380
|
- विषय क्रम