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देवव्रत

त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16642
आईएसबीएन :978-1-61301-741-8

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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य



बोली हे नृपति! आप सचमुच,
हैं धीर-वीर निष्कामी भी,
मैं भी चाहूँ बरना प्रभु को-
पति-रूप, उदय हो भाग्य मेरा॥24॥

फिर आकर निकट शान्तनु के,
माधुर्य सनी वाणी बोली,
स्वीकार मुझे पत्नी बनना-
आपकी, रहें साक्षी सुरगण॥25॥

पर उससे पहले शर्त एक,
यदि आप वरण मुझको करते,
मैं जो भी चाहूँ करूँ, कहूँ,
होगा न विरोध आप द्वारा॥26॥

जिस क्षण मुझको आभास हुआ,
वह होगा मेरा, अन्त समय-
पृथ्वी पर रहने का राजन्,
भू लोक छोड़, जाऊँगी मैं॥27॥

उसकी शान्तनु से परिणय की-
थी एकमात्र मंशा, केवल,
चाहती मुक्ति थी वसुओं की,
दे जन्म कुक्षि से अपनी वह॥28॥

राजा प्रतीप की वह वाणी,
आई थी याद उभय को ही,
वसुओं की मुक्ति प्रतीप-कथन,
दोनों ही थे परिणय-माध्यम॥29॥

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