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माधवजी सिंधिया

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :383
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1666
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है माधवजी सिंधिया पर आधारित उपन्यास...

Madhavji sindhiya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह बात उस युग की है जिसके लिए कहा जाता है कि मराठे और जाट हल की नोक से, सिक्ख तलवार की धार से और दिल्ली के सरदार बोतल की झलक से इतिहास लिख रहे थे ! और अंग्रेज उस समय क्या थे ? क्लाइव के विविध रुपों के समन्वय-व्यवसाय सिपाहीगीरी, भेड़ की खाल उतारनेवाली राजनीतिज्ञता, बेईमानी, शूरता, धूर्तता।

उस युग में चुनाव नहीं होते थे, परंतु राजनीतिक, राजनीतिज्ञ और राजदर्शी तो थे ही। और राजनीति के क्षेत्र में भयंकर महत्त्वाकांक्षी भी। राजदर्शी वह जो भेड़ के बाल काटे और राजनीतिक वह जो भेड़ की खाल खींच डालने पर ही जुट पड़े।
ऐसे समय में माधवजी (महादजी सिंधिया) पैदा हुए। आँधी-तूफान की भँवरों और असंख्य धक्कों में छाती ताने, सिर सीधा किए हुए एक ही माधव-शायद उस युग में दूसरा कोई नहीं। तभी तो कीन ने कहा था, ‘‘एशिया-भर के जननायकों में कोई भी ऐसा नाम नहीं है जो माधवजी सिंधिया की बराबरी कर सके।’’ और जनरल मालकम ने उन्हें - ‘Steel under velvet gloves’, ‘मखमली दस्तानों में फौलाद’ की उपाधि प्रदान की।

इसी पुस्तक से

भारत के महान् राजदर्शी माधवजी सिंधिया का चरित्र प्रस्तुत कर वर्माजी ने भारतीय साहित्य को वह अमर कृति उपलब्ध करा दी है जो आनेवाले समय में भी समाज और राजनीतिज्ञों का मार्गदर्शन करती रहेगी।
‘‘....माधवजी का विशाल स्वप्न भारत की सारी शक्तियों को अंग्रेजों के विरुद्ध एकता में बाँधने का था। इस विषय में उन सरीखा अत्यंत दूरदर्शी राजदर्शी भारत ने और कोई नहीं उत्पन्न किया। यह एक विराट् कल्पना थी, परन्तु इसे माधवजी ही, सफल बना सकते थे। यदि उनका देहांत न हो गया होता तो वे सफल हो जाते।’’

कर्नल मैलीसन
(भारत में फ्रांसीसियों का अंतिम संघर्ष)

परिचय

कुछ लोगों का कहना है कि राजनीति वह जंतु है जो बैठा तो रहता है पेड़ की ऊँचाई पर परंतु कान लगाए रहता है नीचे की भूमि पर रेंगने और चलने-फिरने वाले जीवों पर ! जर्मनी का संगठन करने वाले विख्यात बिस्मार्क के राजनीतिज्ञ और राजदर्शी में यह अंतर बताया था कि राजनीतिज्ञ आने वाले चुनाव की चिंता में ग्रस्त रहता है, परन्तु राजदर्शी आनेवाली पीढी़ के कल्याण की बात सोचा करता है। डेढ़ सौ वर्ष से ऊपर हो गए जब एक ने झुँझलाकर कहा था कि यदि पदों का बँटवारा राजनीतिकों के स्वयंसिद्ध अधिकार की बात है तो पद रिक्त हों कैसे ? पर रिक्त होता या तो पदाधिकारी की मृत्यु से-जो कभी-कभी ही होती है-या पद त्याग से; परन्तु पद त्याग तो कोई करता नहीं ! ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि राजदर्शी वह भेड़ के बाल काटे और राजनीतिक वह जो भेड़ की खाल खींच डालने पर ही जुट पड़े !

राजनीतिक स्थिति में, चाहे वह वर्तमान की हो अथवा भूतकालीन, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक तत्त्व तथा प्रश्न घुले-मिले रहते हैं। आजकल हम जिस परिस्थिति में हैं मध्य युग के अंत पर जब अंग्रेज यहाँ आ जमे, हम कहाँ थे ? क्या मध्य युग के उस अन्त के काल में हमारे भीतर राष्ट्रीय भावना थी ? हमारी प्रांतीयता, वर्ग-द्वेष, जाति-मोह और स्वार्थपरता ने यहाँ विदेशियों का अड्डा जमाने में उनकी कितनी सहायता की ? क्या ये संकट अब हमसे दूर पड़ गए हैं ? क्या इन संकटों के निवारण की चेष्टा किसी ने मध्य युग के अंत पर-अठारहवीं शताब्दी में की थी ? यदि की थी तो क्या आज हम उससे कुछ सीख ले सकते हैं ?
उस युग में चुनाव नहीं होते थे, परंतु राजनीतिक, राजनीतिज्ञ और राजदर्शी तो थे ही। और राजनीति के क्षेत्र में भयंकर महत्त्वाकांक्षी भी।

कुछ सूक्ष्मदर्शी भी थे। उनमें एक बहुत बड़े माधवजी सिंधिया हुए हैं, जिन्हें बोलचाल में महादजी सिंधिया भी कहते हैं।
नाम माधवजी का कहीं छुटपन में ही सुन लिया था। ‘रूलर्स ऑव इंडिया’ ग्रंथमाला में प्रकाशित उनका जीवनचरित पीछे पढ़ा। इसका लेखक कीन (Keene) नाम का एक अंग्रेजी विद्वान् है। उसकी पुस्तक में माधवजी के संबंध में यह वाक्य पढ़ने को मिला- ‘Amongst Asiatic public no name to match with Madhava Sindhia.’ (keene’s Madhava Rao Sindhia, p. 191) ‘एशिया-भर के जननायकों में कोई भी ऐसा नाम नहीं है जो माधव सिंधिया की बराबरी कर सके।’ (पृष्ठ 191)

सन् 1914 में इस पुस्तक के आधार पर मैंने ‘माधवराव सिंधिया का जीवनचरित’ लिखा और एक मित्र की कृपा से खो भी दिया। कृपा इसलिए कि यदि छप जाता तो पीछे पछताता; क्योंकि कीन के हाथ एक ऐसी बहुत-सी सामग्री नहीं लगी थी जो मुझे वर्षों उपरांत प्राप्त हुई। इसी कारण कीन से कुछ गलतियाँ भी हुई हैं। जनरल सर जॉन मालकम माधवजी का समसामयिक था। उसने अपनी पुस्तक ‘Memoirs of Central India’ में माधवजी के लिए लिखा है- ‘Steel under velvet gloves’ –मखमली दस्तानों में फौलाद ! मैं धीरे-धीरे सामग्री इकट्ठी करता रहा और माधवजी के संबंध में कही गई वे बातें मन में रखे रहा।

‘Historical Papers Relating to Madhavaji Sindhia’ महादजी शिंदे ह्याञ्ची कागद पत्रें (मराठी) सन् 1937 में प्रकाशित हुई। ग्रांट डफ् (Grant Duff) का मराठों का इतिहास (दो भाग) विख्यात कृति है। श्री जी.एस.सरदेसाई को मराठों का इतिहास (तीन भाग), सर यदुनाथ सरकार के ‘Fall of the Mogul Empire’ (मुगल साम्राज्य का पतन) (तीन भाग), तथा ‘Persian Records of Maratha History-Delhi Affairs’, अर्विन (Irvine) का ‘Later Moguls’ (बाद के मुगल) (दो भाग), श्री जी.एस. सरदेसाई का ‘Main Currents of Maratha History’ (मराठा इतिहास की प्रमुख धाराएँ), एलफिन्स्टन टॉमसन, रानाड़े इत्यादि की अंग्रेजी पुस्तकें और तवारीखे मुजफ्फरी (फारसी) तथा तवारीखे महाराजगाने ग्वालियर (उर्दू) इत्यादि ग्रन्थ भी मुझे प्राप्त हो गए। इन सबका अध्ययन करने के उपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा की माधवजी सिंधिया सचमुच महामानव थे। उनमें कुछ त्रुटिया भी थीं, परंतु कितनी ? उनके बड़े-बड़े गुणों के सामने नगण्य-सी। किस महामानव में नहीं थीं ऐसी छोटी-छोटी सी त्रुटियाँ ?

इतिहास के जिस चौखटे में माधवजी सिंधिया का मैं चित्रण करना चाहता था, वह विशाल और विस्तृत था-अखिल भारतीय ! चित्र की रूपरेखा, विभिन्न रंगों का अनुपात और वितरण, ऐतिहासिक तथ्यों और कल्पना का घोल-मेल-ये सह समस्याएँ सामने थीं। परंतु इन सबको चिनौती देनेवाला माधव जी का महान व्यक्तित्व उस घोर ग्लानि वाले युग में ! यह हमारे देश का सौभाग्य है कि अति पतनोन्मुखी युग में भी महान् नर-नारी हुए हैं जो मार्गदर्शन करते हुए अपनी छाप छोड़ गए-माधवजी सिंधिया और उनके समकालीन ही राम शास्त्री, अहिल्याबाई होलकर, माधवराव पेशवा, इब्राहीमखाँ गार्दी इत्यादि।

हमारे अनेक इतिहासकारों ने अखिल भारत को एक-रस, एक-रूप, एक केंद्रतंत्रस्थ देखने की कल्पना की है। जिस राजा या बादशाह ने भारत के समग्र प्रदेशों को सशक्त केंद्र के नीचे समेटने का प्रयत्न किया है, वही अत्यधिक प्रशंसा का पात्र बना। आज हमारा गणतंत्र संघीय-गणतंत्र है। यही हमारे लिए स्वाभाविक भी है। भूतकाल के केंद्र को पूर्णरूपेण सशक्त बनाए रखने की भी आवश्यकता थी, अन्यथा विदेशी आक्रमणकारियों को कौन हटाता ?

 परन्तु भिन्न-भिन्न भाषाभाषी प्रदेशों के लिए भी तो कुछ चाहिए था। पठान, मुगल इत्यादि सम्राटों के काल में- अकबर और उसके दो उत्तराधिकारियों को छोड़कर- शेष सब तुर्क, तूरानी, ईरानी, हब्शी इत्यादि परदेशियों की सैन्य संख्या पर निर्भर थे। केन्द्र से छुटकारा पाकर जो प्रदेश आत्मनिर्भर हुए उनमें हिंदू और मुसलमानों की एकता बढ़ी, केंद्र में उस एकता का काफी अभाव रहा। अठारहवीं शताब्दी में यह अभाव बहुत बढ़ गया। उत्तर भारत के लगभग सभी खंड परदेशी जागीरदारों, जमींदारों के हाथ में चले गए। ऐसी कठिन परिस्थिति में भी माधवजी सरीखे नायक का ही काम था कि केन्द्र को प्रबल बनाए रखने के साथ ही उन्होंने प्रदेशों को भी आत्मनिर्भर बने रहने में रहने में सहयोग दिया और हिंदू-मुसलमानों में एकता की भावना समृद्ध करने के प्रयत्न किए। साथ ही, उस परदेशी जागीरदारों और जमींनदारों को उखाड़कर जनता के विकास का मार्ग विस्तृत किया।

माधवजी सिंधिया का जीवन चरित न लिखकर उपन्यास लिखने का संकल्प मैंने इस कारण किया कि बड़ी मात्रा में कल्पना के लिए गुंजाइश मिल गई। परंतु मैंने कल्पना को भी इतिहास-मूलक रखा है।
‘माधवजी सिंधिया’ के सब पात्र, केवल बहुत थोड़ों को छोड़कर, ऐतिहासिक हैं। नारी-चरित्रों में गन्ना बेगम और उम्दा बेगम इतिहास-प्रसिद्ध हैं। गन्ना बेगम समाधि ग्वालियर के उत्तर-पश्चिम में लगभग ग्यारह-बारह मील है। कहाँ की तो गन्ना बेगम और कहाँ उसका देहावसान हुआ ! यों तो माधवजी के युग की अनेकानेक घटनाएँ रोमांचकारी और ध्यान आकृष्ट करनेवाली हैं, परन्तु गन्ना बेगम, उम्दा बेगम, जवाहरसिंह, नजीबखाँ, गुलाम कादिर, शिहाबुद्दीन इत्यादि की तो बहुत ही हैं। शिहाबुद्दीन ! हद हो गई इस एक में नृशंसता, नीचता, छल-कपट, शूरता और निर्ममता की। क्या थी राजनीति उस युग की ! उस पतित और भ्रष्ट राजनीति के युग में भी माधवजी सिंधिया सदृश्य महापुरुष को भारत ने जन्म दिया।
कर्नल मैलीसन अपनी पुस्तक ‘The Final French Struggle in India’ (भारत में फ्रांसीसियों का अंतिम संघर्ष) में माधवजी के संबंध में कहता है-

‘….The Great Dream of Madhava was to unite all the native powers of India in one great confederacy against the English. In this respect he was the most far sighted statesman that India has ever produced.- It was a grand idea, capable of realisation by Madhavaji, but by him alone, and, but for his death, would have been realized. ’

अर्थात्- ‘.....माधवजी का विशाल स्वप्न भारत की सारी शक्तियों को अंग्रेजों के विरुद्ध एकता में बाँधने का था। इस विषय में उन सरीखा अत्यंत दूरदर्शी राजदर्शी भारत ने और कोई नहीं उत्पन्न किया। यह एक विराट् कल्पना थी, परंतु इसे माधवजी, केवल माधवजी ही, सफल बना सकते थे, यदि उनका देहांत न हो गया होता तो वे सफल हो जाते।’
यह थी वास्तव में स्वराज्य की तत्कालीन कल्पना, जिसे छत्रपति शिवाजी ने सबसे पहले साकार किया। शिवाजी ने अपने पत्र में स्वराज्य का विवरण दिया है। देखिए ‘पत्र सार संग्रह’ न.642 और सर देसाई की ‘Main Currents of Maratha History’, पृ.133। माधवजी इसी परंपरा के भक्त थे। उन्होंने कभी अपने को राजा-महाराजा नहीं कहा, केवल पटेल ! जनरल सर मालकम ने कुढ़कर लिखा है-

‘Madhoji made himself a sovereign by calling himself a servant.’ (Central India, I, P. 125)
अर्थात्- माधवजी जी अपने को सेवक कहते-कहते राजा हो गए !
यह बात उस युग की है जिसके लिए कहा जाता है कि मराठे और जाट हल की नोक से, सिक्ख तलवार की धार से और दिल्ली के सरदार बोतल की छलक से इतिहास लिख रहे थे ! और अंग्रेज उस समय क्या थे ? क्लाइव के विविध रुपों के समन्वय-व्यवसाय, सिपाहीगीरी, भेड़ की खाल उधेड़नेवाली राजनीतिज्ञता, बेईमानी, शूरता, धूर्तता।
जब ईस्ट इंडिया कंपनी स्थापित हुई, उसके विधान में एक धारा यह भी थी-‘कोई भी सज्जन उत्तरदायित्व के किसी भी पद पर नहीं रखा जाएगा।’

‘The society of adventurers constituted into The East India Company resolved on consultation not to employ any gentleman in any place of charge.’ Bruce’s Annals of the East India Co., Vol.1, p.17 and p.132.
 नीति और सदाचार की कमी अनेक अंग्रेज आगंतुकों में बहुत समय तक बनी रही। माधवजी के युग में यही हाल रहा। भारत के तत्कालीन अधिकांश राजनीतिकों में कदाचित् और भी अधिक था। अंग्रेजों के पास अनुशासन और नए-नए अस्त्र-शस्त्र अवश्य थे। इन सबका सामना करने के लिए माधवजी ने कमर कस ली। आँधी-तूफानों की भँवरों में-छाती ताने, सिर सीधा किए हुए एक ही माधव-शायद उस युग में दूसरा कोई नहीं !

इन आँधी-तूफानों में एक बड़ा था ‘सल्तनते जम्हूरियत’ का मुसलिम संगठन। शाहवली उल्लाफ फकीर इसके संस्थापक थे। अपने मत समर्थन वाले हिन्दुओं को भी इस संघ में शामिल करना चाहते थे। परंतु उनका एक चेला शाहकुतुब मन-ही-मन इस विचार के विरुद्ध था। वही है यह कुतुबशाह जिसने नजीबखाँ रुहेले का साथ देकर माधवजी के बड़े भाई दत्ता जी का, घायल और बंदी होते हुए भी, सिर काटकर नजीबखाँ को भेंट किया था। शाहवली उल्लाह का देहांत सन् 1762 में हो गया। उनका प्रधान शिष्य शाह अब्दुल अजीज मतांधता में बहुत आगे निकल गया।

उसने फतवा दिया कि ‘जहाँ आजाद इस्लाम की हकूमत न हो वह दारुलहरब है; वहाँ के मुसलमान हकूमत के खिलाफ या तो तलवार पकड़ें या हिजरत करें-उस देश को छोड़कर चले आवें। इस मत का विस्तार परदेशी मुसलमानों ने जोर के साथ किया। एक दिन दिल्ली का बादशाह भी इस चक्कर में खींच लिया गया, जिसकी सहायता माधवजी कर रहे थे ! अठारहवीं शताब्दी के इस आंदोलन के बीज हमारी बीसवीं शताब्दी में भी फूले-फले। मुसलिम लीग पाकिस्तान और पाकिस्तान के इस्लामी रिपब्लिक (जम्हूरियत) अधिकांश में उसी के परिणाम हैं। अंग्रेज भी इस आंदोलन का साथ देने पर तुल पड़े थे क्योंकि उन्हें खंड-खंड विभक्त भारत का हड़पना तब दुष्कर नहीं जान पड़ता था।

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