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लोकेश जी के गीतों का संग्रह
मन को जरा बदल कर देखो
• डॉ सुरेश अवस्थी
किसी भी रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओं में उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देखने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविताओं में परिलक्षित होती है। उपमाएं, विम्ब-विधान मौलिकता और वास्तविकता भी उतनी ही ह्रदयस्पर्शी होती है. विषय वस्तु रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य पर निर्भर होते हैं ।
गीत कवि लोकेश शुक्ल के जीवन संघर्षों से उपजे अनुभव संसार से मैं व्यक्तिगत रूप से परिचित हूँ। उन्होंने आकाशवाणी में उद्घोषक के रूप में सेवाएं दीं तो लोकप्रिय समाचार पत्र दैनिक जागरण में समाचारों का संपादन, पुनर्लेखन और उसकी धार तराशने का श्रमशील कार्य कई दशकों तक किया। वह जागरण कालेज आफ मास कम्युनिकेशन में कई वर्षों तक विद्यार्थियों को पत्रकारिता पढ़ाते रहे। उन्होंने कानपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था 'श्रृंगार संध्या' के माध्यम से कवि सम्मेलनों के गरिमापूर्ण मंच भी सजाये। अनुभवों को बटोरने और संरक्षित करने के इतने विशद अवसर उनके समीप रहे कि वह न केवल मानवीय संवेदनाओं से गहनता से जुड़ सके बल्कि भाषा प्रवाह में गहराई से उतर सके। इसीलिए उनकी रचनाधर्मिता का संसार विशाल और विविधतापूर्ण है।
मधुर कण्ठ के धनी, शब्द संपदा को सटीक सुरों से सजाने के हुनर रखने वाले मित्र लोकेश शुक्ल के काव्य संग्रह के गीतों, मुक्तकों और दोहों में प्रेम, जीवन दर्शन, आध्यात्म, सामाजिकता, पारस्परिक रिश्तों के बिम्ब सहज ही समाहित मिलते हैं जो पाठकों/श्रोताओं के चित्त को सहज ही आकर्षित करते हैं।
गीतकार लोकेश शुक्ल मानव मन की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करते हुए बहुत गहरे उतर कर उन विसंगतियों तक सहज ही पहुंचते हैं जिन्हें दूर करके जीवन सुखमय बनाया जा सकता है। उनका यह गीत पूरी संवेदना और गहन गवेषणा के साथ पथ प्रदर्शन करता है-
मन को जरा बदल कर देखो
घर-चौबारे फिर महकेंगे.
आग्रह और दुराग्रह वाली-
गाँठें बहुत लगा लीं हमने
भीतर-भीतर खींच परिधियाँ
चाहें बहुत सजा लीं हमने
दिल के रोशनदान खुलें तो
ढाई आखर फिर चहकेंगे
जहां तक मैं उनकी रचनाधर्मिता का साक्षी हूं, मैं गंभीरता के साथ यह कह सकता हूँ कि उन्होंने सप्रयास रचनाएं नहीं रचीं। वह अनुभवों की विषयवस्तु को संग्रहित कर उनको किसी संवेदनशील चित्रकार की तरह उपयुक्त और आवश्यक रंगों में ढालते और फिर उसे अनुभूतियों के आभूषण पहना कर सहज ही जीवंत रूप देते हैं, यही कारण है कि उनके गीतों व मुक्तकों में जो इंद्रधनुषी बिम्ब समाहित होते हैं वे काव्यप्रेमी पाठकों को सहज ही आकर्षित करके उनके चित्त पर अमिट छाप छोड़ते हैं। यथा-
तुम अचानक आ गये मधुमास में
फागुनी रंग छा गये आकाश में.
दिन सुनहरी धूप का झरना हुआ
साँझ मंदिर दीप का धरना हुआ
राम जाने हर घड़ी क्यूं लग रहा
ये गगन जैसे घिरा हो प्यास में
वर्तमान में बाजारवाद के शिकार हुए रिश्तों को परखना कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखने जैसा आसान नहीं रहा। सामान्य व्यक्ति भी इसे महसूस करता है पर साहस, उपयुक्त भाषा और अवसर के अभाव में कह नहीं पता। ऐसे में कवि की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह समाज की इन गूँगी अनुभूतियों को स्वर दे। कबीर दास, तुलसीदास, रहीमदास सहित कई रचनाकारों ने इस धर्म को अपना कर दोहों के माध्यम से लोगों को स्वर के साथ-साथ सीख भी दी जो आज भी जीवंत हैं। लोकेश शुक्ल ने भी इस कवि कर्म से मुंह नहीं मोड़ा। उनके दोहे समय और समाज के तमाम अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब बन जाते हैं। उदाहरण द्रष्टव्य है:
नफरत से निकले नहीं, नफरत वाला खार.
प्यार गिरा देता सभी, कटुता की दीवार.
* **
संबंधों में पेंच हैं, पेंचों में सम्बन्ध.
रिश्ते अब तो हो गये, बस केवल अनुबंध.
कोई भी रचनाकार वाह्य जगत के साथ अंतर्जगत में भी विचरण करता रहता है। जब कभी वाह्य जगत की आवश्यक व्यस्तताएं उसका अधिकतम समय छीन लेती हैं, तब रचनाकार अपने अंतर्जगत को नेपथ्य में डाल कर प्रत्यक्ष से जूझता है। ऐसे में वह न चाह कर भी ऊसर रचनाधर्मिता के उत्प्रेरक तत्वों से दूरी बनाने को मजबूर हो जाता है। भाई लोकेश शुक्ल की दो दशक से अधिक वर्षों तक की शामें दैनिक जागरण की पत्रकार कर्म की मुट्ठी में रहीं और वह आमंत्रण चाह कर भी ऊर्जा देने वाली साहित्यिक संगोष्ठियों व कवि सम्मेलनों तक नहीं पहुंच पाए। मुझे याद है दर्जनों बार ऐसा हुआ होगा कि मैंने उन्हें कवि सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया और वह संप्रति का हवाला देकर भागीदारी न कर पाने को विवश हो गए। सम्प्रति के प्रति उनका यह विशेष समर्पण प्रशंसनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है।
समाचार संपादन की उनकी चेतना का में हमेशा कायल रहा हूं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैंने अपनी कवि सम्मेलनीय विदेश यात्राओं के दौरान अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड व दुबई आदि देशों से दैनिक जागरण के लिए खबरें लिखीं जिन्हें सभी संस्करणों में प्रथम पृष्ठ पर स्थान मिला। इन समाचारों/आलेखों का संपादन लोकेश जी करते थे। उनका संपादन 'सोने में सुहागा साबित' होता था।
इस युगीन सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाजारवाद और भौतिकवाद की चकाचौंध के संजाल में उलझे लोगों को स्वयं से संवाद करने का अवसर नहीं मिलता। हमारी ये चेतना कहीं गुम होती जा रही है। जिन तमाम समस्यायों के समाधान व्यक्ति के अंत:करण में सहज ही मिल सकते हैं, उन्हें हम बाहर खोजते खोजते और उलझ जाते है। गीतकवि लोकेश शुक्ल अनुभवों के धरातल पर अपनी अनुभूतियों के बल पर गीत रचना करके काव्य रसिकों को बहुत ही संजीदगी और सलीके से कालजयी गीत से साववधान करते हैं :
बाहर नहीं तलाशो कुछ भी
भीतर सब कुछ मिल जायेगा.
अपने पास ज़रा बैठो तुम
उतरो मन की गहराई में
मिल जाते प्रश्नों के उत्तर
आसानी से तनहाई में
होने दो अंकुरित बीज को
फूलों का मौसम छायेगा
भीतर सब कुछ....
हमारा विस्वास है कि श्री लोकेश शुक्ल की काव्य कृति 'मनुहारों के शिखर' पाठकों के बीच लोकप्रिय होगी और हिंदी काव्य साहित्य की उल्लेखनीय निधि बनेगी।
अशेष शुभकामनाओं के साथ।
- डॉ सुरेश अवस्थी
(राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त शिक्षाविद्, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि व वरिष्ठ पत्रकार)
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