लेख-निबंध >> हमारे प्रेरणा पुंज हमारे प्रेरणा पुंजशंकर दयाल शर्मा
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प्रस्तुत पुस्तक में भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रेरणादायक महापुरुषों के बारे में संक्षिप्त वर्णन किया गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आज दो बड़े कार्य हमारे राष्ट्र के सामने हैं। पहला है-आजादी की रक्षा
करना, और दूसरा है-राष्ट्रीय पुनर्निमाण का कार्य। कोई भी ऐसा कार्य,
जिससे हमारी राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक चेतना तथा समाज के ताने-बाने को
नुकसान पहुँचता है, उसका विरोध लोगों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाना
चाहिए। क्योंकि नकारात्मक शक्तियों से जहाँ एक ओर हमारे राष्ट्र की
स्वतंत्रता को चुनौती मिलती है, वहीं राष्ट्रीय पुनर्निमाण के कार्य में
भी रुकावट आती है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे नेता हमारे देश को
क्यों आजाद कराना चाहते थे ?
उनका सीधा-सा मकसद था-हम आजाद हों, ताकि हम स्वयं अपने भाग्य का निर्धारण कर सकें और सब लोगों को सुखी बना सकें। लेकिन जब तक राष्ट्र की सामूहिक शक्ति संकल्प लेकर विकास-कार्य में नहीं लगती तथा विकास को बाधा पहुँचाने वाली शक्तियों का विरोध नहीं करती, तब तक स्वराज्य के जन्मसिद्ध अधिकार का संकल्प पूरी तरह से पूरा नहीं होता। हम लोगों पर इस संकल्प को पूरा करने का दायित्व है और हमें इसे पूरा करना है। मुझे अपने देश के लोगों की शक्ति, उनकी क्षमता और उनकी सकारात्मक चेतना पर पूरा भरोसा है और यह विश्वास है कि वे हमारे नेताओं के अधूरे सपनों को पूरा करेंगे।
उनका सीधा-सा मकसद था-हम आजाद हों, ताकि हम स्वयं अपने भाग्य का निर्धारण कर सकें और सब लोगों को सुखी बना सकें। लेकिन जब तक राष्ट्र की सामूहिक शक्ति संकल्प लेकर विकास-कार्य में नहीं लगती तथा विकास को बाधा पहुँचाने वाली शक्तियों का विरोध नहीं करती, तब तक स्वराज्य के जन्मसिद्ध अधिकार का संकल्प पूरी तरह से पूरा नहीं होता। हम लोगों पर इस संकल्प को पूरा करने का दायित्व है और हमें इसे पूरा करना है। मुझे अपने देश के लोगों की शक्ति, उनकी क्षमता और उनकी सकारात्मक चेतना पर पूरा भरोसा है और यह विश्वास है कि वे हमारे नेताओं के अधूरे सपनों को पूरा करेंगे।
इसी पुस्तक से
1
भगवान् गोमतेश्वर बाहुबली
श्रवणबेलगोला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ की गोमतेश्वर की विशाल
प्रतिमा मूर्तिकला, प्रतीकार्थ और अभियांत्रिकी का एक आश्चर्य है। यह
प्रतिमा जैन-परंपरा की प्राचीनतम, और साथ ही, जैन सिद्धांत और ज्ञान की
स्थायी प्रासंगिकता का भी प्रतिनिधित्व करती है। गोमतेश्वर ने पिछले एक
हजार साल से पीढ़ी-दर-पीढ़ी को लगातार प्रेरित किया है। वह जैन दर्शन,
धर्म और संस्कृति के बारे में लोगों की जागरुकता बढ़ाते रहे हैं, और
बढ़ाते रहेंगे।
इस अवसर पर ‘गोमतेश-थुडी’ का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। महान् जैन संत, दार्शनिक और कवि आचार्य नेमीचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने शौरसैनी प्राकृत में इन श्लोकों की रचना करीब एक हजार वर्ष पूर्व की थी। आचार्य नेमीचंद्र चामुंडराय के गुरु थे। चामुंडराय को बाहुबली की इस विशाल प्रतिमा का निर्माण करवाने वाले के रूप में जाना जाता है। यह भी उल्लेख मिलता है कि ‘गोमतेश-थुडी’ की रचना भव्य महा-प्रतिस्थापना महोत्सव के पश्चात् की गई थी और इसका स्तवन भी हुआ था। इसके बाद ही, आज से 1012 वर्ष पूर्व, सन् 981 में प्रथम महा-मस्तकाभिषेक हुआ था।
गोमतेश्वर के महा-मस्तकाभिषेक शुभारंभ समारोह के अवसर पर प्राचीन और उदात्त प्रेरणा के उन आठ श्लोकों को स्तवन करना उपयुक्त होगा जिनमें गोमतेश्वर की स्तुति की गई है-
इस अवसर पर ‘गोमतेश-थुडी’ का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। महान् जैन संत, दार्शनिक और कवि आचार्य नेमीचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने शौरसैनी प्राकृत में इन श्लोकों की रचना करीब एक हजार वर्ष पूर्व की थी। आचार्य नेमीचंद्र चामुंडराय के गुरु थे। चामुंडराय को बाहुबली की इस विशाल प्रतिमा का निर्माण करवाने वाले के रूप में जाना जाता है। यह भी उल्लेख मिलता है कि ‘गोमतेश-थुडी’ की रचना भव्य महा-प्रतिस्थापना महोत्सव के पश्चात् की गई थी और इसका स्तवन भी हुआ था। इसके बाद ही, आज से 1012 वर्ष पूर्व, सन् 981 में प्रथम महा-मस्तकाभिषेक हुआ था।
गोमतेश्वर के महा-मस्तकाभिषेक शुभारंभ समारोह के अवसर पर प्राचीन और उदात्त प्रेरणा के उन आठ श्लोकों को स्तवन करना उपयुक्त होगा जिनमें गोमतेश्वर की स्तुति की गई है-
विसट्ट कंदोट्ट - दलाणुयारं
सलोयणं चंद - समाण - तुंडं।
घोणाजियं चंपय - पुष्फसोहं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।1।।
अच्छाय - सच्छं जलकांत गंडं
आबाहु – दोलंत - सुकण्ण - पासं।
गइंद - सुंडुज्जल - बाहुदंडं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।2।।
सुकंठ - साहा जिय – दिव्व - संखं
हिमालयुद्दाम – विसाल - कंधं।
सुपेक्खणिज्जायल - सुट्ठुमज्ज्ञं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।3।।
विज्ञायलग्गे पविभाणमाणं
सिहामणिं सव्व - सुचेदियाणं।
तिलोय - संतोसय - पुण्णचंदं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।4।।
लया - समक्कंत - महासरीरं
भव्वावली - लद्ध - सुकप्परूक्खं।
देविंदविंदाच्चिय - पायपोम्मं
तं गोम्मटेंस पणमामि णिच्चं।।5।।
दियंबरो जो ण य भीइजुत्तो
ण चाबरे सत्तमणो विसुद्धो।
सप्पादि-जंतुप्फुसिदो ण कंपो
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।6।।
आसं ण जो पेक्खदि सच्छदिट्ठि
सोक्खे ण वंछा हयदोसमूलं।
विराय - भावं भरहे विसल्लं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।7।।
उपाहि-मुत्तं धण – धाम-वज्जियं
सुसम्म - जुत्तं मय - मोह हारयं।
वस्सेय - पज्जंत मुववासजुत्तं
तं गोम्मटेस पणमामि णिच्चं।।8।।
सलोयणं चंद - समाण - तुंडं।
घोणाजियं चंपय - पुष्फसोहं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।1।।
अच्छाय - सच्छं जलकांत गंडं
आबाहु – दोलंत - सुकण्ण - पासं।
गइंद - सुंडुज्जल - बाहुदंडं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।2।।
सुकंठ - साहा जिय – दिव्व - संखं
हिमालयुद्दाम – विसाल - कंधं।
सुपेक्खणिज्जायल - सुट्ठुमज्ज्ञं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।3।।
विज्ञायलग्गे पविभाणमाणं
सिहामणिं सव्व - सुचेदियाणं।
तिलोय - संतोसय - पुण्णचंदं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।4।।
लया - समक्कंत - महासरीरं
भव्वावली - लद्ध - सुकप्परूक्खं।
देविंदविंदाच्चिय - पायपोम्मं
तं गोम्मटेंस पणमामि णिच्चं।।5।।
दियंबरो जो ण य भीइजुत्तो
ण चाबरे सत्तमणो विसुद्धो।
सप्पादि-जंतुप्फुसिदो ण कंपो
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।6।।
आसं ण जो पेक्खदि सच्छदिट्ठि
सोक्खे ण वंछा हयदोसमूलं।
विराय - भावं भरहे विसल्लं
तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं।।7।।
उपाहि-मुत्तं धण – धाम-वज्जियं
सुसम्म - जुत्तं मय - मोह हारयं।
वस्सेय - पज्जंत मुववासजुत्तं
तं गोम्मटेस पणमामि णिच्चं।।8।।
सीधे और शाब्दिक अर्थ में ये पद बाहुबली की प्रतिमा की महामहिमा और
सौंदर्य के प्रति प्रशंसात्मक भाव जाग्रत करते हैं; लेकिन सूक्ष्म अर्थ
आध्यात्मिक उन्नति की चरम सीमा पर पवित्रता और परिपूर्णता प्राप्त करने से
है। जैन दर्शन और ज्ञान के अनुसार, यह स्थिति तब आती है जब मनुष्य भौतिक
जगत् के सभी प्रकार के संबंधों प्रभावों और दबावों से मुक्त हो जाता है और
परम मोक्ष प्राप्त करता है।
यही जीत का वह स्तर है जो जैन धर्म का उद्देश्य है। यह ध्यान देने योग्य है कि जैन शब्द ‘जिन’ से बना है, जिसका धातु रूप ‘जि’ है, जो प्रभुत्व, विजय और श्रेष्ठता का अर्थ देता है।
इस उद्देश्य के लिए यह विचारों की वह आश्चर्यजनक और गूढ़ विरासत है, जो जैन दार्शनिकों तथा सत्य की खोज करने वालों द्वारा हमें दी गई है। आज बौद्धिक ज्ञान के इस खजाने की गुणवत्ता और मात्रा की दृष्टि से पहले से भी अधिक आवश्यकता है।
हालाँकि इसका जन्म बहुत पुराने समय में हुआ था; लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी यथावत् है। यह प्रासंगिकता आज की मानव जाति के लिए है और भविष्य की मानव जाति के लिए भी रहेगी।
ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ने के लिए तर्क का उपयोग, विश्लेषण की तकनीक, परिभाषा, निगमन, प्रतिपादन और द्वंद्वात्मक विस्तार जैन सिद्धांत और ज्ञान की धारा के मुख्य तत्त्व हैं। जैन विचारकों के ये दृष्टिकोण अत्यंत वैज्ञानिक थे, जो अनेक विषयों में सूक्ष्मता और स्पष्टता के साथ व्यक्त हुए हैं। इनमें से अनेक विषयों ने आधुनिक वैज्ञानिकों, सैद्धांतिकों, भौतिकशास्त्रियों, गणितज्ञों तथा ब्रह्मांड-विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया है। जैन बौद्धिक परंपरा के विद्वान जैन धर्म की इस व्यापकता से परिचित हैं। कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो पदार्थ, काल, व्योम और ऊर्जा संबंधी प्राचीन जैन सिद्धांतों से परिचित होंगे। इन विषयों पर साहित्य का सागर उपलब्ध है। ‘तत्त्वार्थ सूत्र’ में आचार्य कुंदकुंद के शिष्य जैन संत उमास्वामी ने जैन बौद्धिकता की प्रखरता को बड़े मनोहरी ढंग से प्रस्तुत किया है।
‘रूपिण: पुग्दला’-इस सूत्र के इन दो शब्दों में पदार्थ की परिभाषा दी गई है: ‘जिसका आकार है, वह पदार्थ है।’ ‘अणवः स्कंधाश्चः’ अणु और परमाणु से पदार्थ होता है।
इस सूत्र में अद्भुत अंतर्दृष्टि मिलती है। ‘स्यौल्यसंस्थान भेदतमऽछायाऽतपोधोतवंतश्च।’—‘ध्वनि, चुबंकत्व, जड़-ऊर्जा, गुरुत्वाकर्षण, तड़ित ताप, विकिरण तथा विभिन्न दूरी के प्रकाश भी पदार्थ हैं।’ ‘भेद संधातेभ्य उत्पद्यंते’—‘कणों के संविलय और विखंडन से अणु बनते हैं।’ ‘भेदादणु:’—‘विखंडन से अणु अलग होते हैं’, ‘तद्भावाव्यय नित्यम्’—‘पदार्थ स्थायी (अनश्वर) है, हालाँकि इसके स्वरूप में परिवर्तन हो सकता है।’ ये जैन दर्शन के पदार्थ के बारे में अनगिनत निष्कर्षों में से कुछ हैं।
इसी तरह प्राचीन जैन दार्शनिकों ने काल के बारे में भी वैज्ञानिक विचार किया था। ‘सोऽनंतसमयः’—‘क्षणों का अनंत उत्तरोत्तर संकलन।’ ‘वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्यः’—‘काल पदार्थ और अवस्था में परिवर्तन की दर को मापने का पैमाना प्रदान करता है।’
व्योम के संबंध में कहा गया है-‘आकाशस्यानंताः’ व्योम की इकाइयाँ अनंत हैं; व्योम के अंतर्गत अनंत बिंदु हैं।’ ‘निष्क्रियाणि चः’—‘व्योम गति एवं विश्राम का माध्यम है, किंतु स्वयं गतिहीन है। ये सभी जैन बौद्धिकता के व्यापक एवं चमकते हुए कण हैं। अंतरिक्ष विज्ञान, ज्योतिष शास्त्र, भू-विज्ञान, गणित, भौतिक शास्त्र, वनस्पति शास्त्र एवं पौध-विज्ञान, रसायन शास्त्र तथा मौसम विज्ञान आदि ज्ञान के कुछ ऐसे व्यापक क्षेत्र हैं, जिन्होंने जैन इतिहास में प्रतिभाशाली मस्तिष्कों का ध्यान आकर्षित किया।
यहाँ इनका उल्लेख इसलिए किया गया है, क्योंकि यह समझना जरूरी है कि ऐसी उच्च कोटि की बौद्धिकता ने जैन दर्शन के सिद्धांतों, धर्म और ज्ञान का निर्माण और विकास किया है। अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, सत्य और ब्रह्मचर्य जैसे दृष्टिकोण तथा जैन धर्म के स्यादवाद अनेकांतवाद और सम्यक दृष्टि को इस परिप्रेक्ष्य में और अच्छी तरह समझा जा सकता है। मन मस्तिष्क की एकाग्रता विकास और उपयोग के लिए आंतरिक अनुशासन, पद्धति तथा नियमों को भी इसी संदर्भ में और अच्छी तरह समझा और सराहा जा सकता है।
यही जीत का वह स्तर है जो जैन धर्म का उद्देश्य है। यह ध्यान देने योग्य है कि जैन शब्द ‘जिन’ से बना है, जिसका धातु रूप ‘जि’ है, जो प्रभुत्व, विजय और श्रेष्ठता का अर्थ देता है।
इस उद्देश्य के लिए यह विचारों की वह आश्चर्यजनक और गूढ़ विरासत है, जो जैन दार्शनिकों तथा सत्य की खोज करने वालों द्वारा हमें दी गई है। आज बौद्धिक ज्ञान के इस खजाने की गुणवत्ता और मात्रा की दृष्टि से पहले से भी अधिक आवश्यकता है।
हालाँकि इसका जन्म बहुत पुराने समय में हुआ था; लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी यथावत् है। यह प्रासंगिकता आज की मानव जाति के लिए है और भविष्य की मानव जाति के लिए भी रहेगी।
ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ने के लिए तर्क का उपयोग, विश्लेषण की तकनीक, परिभाषा, निगमन, प्रतिपादन और द्वंद्वात्मक विस्तार जैन सिद्धांत और ज्ञान की धारा के मुख्य तत्त्व हैं। जैन विचारकों के ये दृष्टिकोण अत्यंत वैज्ञानिक थे, जो अनेक विषयों में सूक्ष्मता और स्पष्टता के साथ व्यक्त हुए हैं। इनमें से अनेक विषयों ने आधुनिक वैज्ञानिकों, सैद्धांतिकों, भौतिकशास्त्रियों, गणितज्ञों तथा ब्रह्मांड-विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया है। जैन बौद्धिक परंपरा के विद्वान जैन धर्म की इस व्यापकता से परिचित हैं। कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो पदार्थ, काल, व्योम और ऊर्जा संबंधी प्राचीन जैन सिद्धांतों से परिचित होंगे। इन विषयों पर साहित्य का सागर उपलब्ध है। ‘तत्त्वार्थ सूत्र’ में आचार्य कुंदकुंद के शिष्य जैन संत उमास्वामी ने जैन बौद्धिकता की प्रखरता को बड़े मनोहरी ढंग से प्रस्तुत किया है।
‘रूपिण: पुग्दला’-इस सूत्र के इन दो शब्दों में पदार्थ की परिभाषा दी गई है: ‘जिसका आकार है, वह पदार्थ है।’ ‘अणवः स्कंधाश्चः’ अणु और परमाणु से पदार्थ होता है।
इस सूत्र में अद्भुत अंतर्दृष्टि मिलती है। ‘स्यौल्यसंस्थान भेदतमऽछायाऽतपोधोतवंतश्च।’—‘ध्वनि, चुबंकत्व, जड़-ऊर्जा, गुरुत्वाकर्षण, तड़ित ताप, विकिरण तथा विभिन्न दूरी के प्रकाश भी पदार्थ हैं।’ ‘भेद संधातेभ्य उत्पद्यंते’—‘कणों के संविलय और विखंडन से अणु बनते हैं।’ ‘भेदादणु:’—‘विखंडन से अणु अलग होते हैं’, ‘तद्भावाव्यय नित्यम्’—‘पदार्थ स्थायी (अनश्वर) है, हालाँकि इसके स्वरूप में परिवर्तन हो सकता है।’ ये जैन दर्शन के पदार्थ के बारे में अनगिनत निष्कर्षों में से कुछ हैं।
इसी तरह प्राचीन जैन दार्शनिकों ने काल के बारे में भी वैज्ञानिक विचार किया था। ‘सोऽनंतसमयः’—‘क्षणों का अनंत उत्तरोत्तर संकलन।’ ‘वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्यः’—‘काल पदार्थ और अवस्था में परिवर्तन की दर को मापने का पैमाना प्रदान करता है।’
व्योम के संबंध में कहा गया है-‘आकाशस्यानंताः’ व्योम की इकाइयाँ अनंत हैं; व्योम के अंतर्गत अनंत बिंदु हैं।’ ‘निष्क्रियाणि चः’—‘व्योम गति एवं विश्राम का माध्यम है, किंतु स्वयं गतिहीन है। ये सभी जैन बौद्धिकता के व्यापक एवं चमकते हुए कण हैं। अंतरिक्ष विज्ञान, ज्योतिष शास्त्र, भू-विज्ञान, गणित, भौतिक शास्त्र, वनस्पति शास्त्र एवं पौध-विज्ञान, रसायन शास्त्र तथा मौसम विज्ञान आदि ज्ञान के कुछ ऐसे व्यापक क्षेत्र हैं, जिन्होंने जैन इतिहास में प्रतिभाशाली मस्तिष्कों का ध्यान आकर्षित किया।
यहाँ इनका उल्लेख इसलिए किया गया है, क्योंकि यह समझना जरूरी है कि ऐसी उच्च कोटि की बौद्धिकता ने जैन दर्शन के सिद्धांतों, धर्म और ज्ञान का निर्माण और विकास किया है। अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, सत्य और ब्रह्मचर्य जैसे दृष्टिकोण तथा जैन धर्म के स्यादवाद अनेकांतवाद और सम्यक दृष्टि को इस परिप्रेक्ष्य में और अच्छी तरह समझा जा सकता है। मन मस्तिष्क की एकाग्रता विकास और उपयोग के लिए आंतरिक अनुशासन, पद्धति तथा नियमों को भी इसी संदर्भ में और अच्छी तरह समझा और सराहा जा सकता है।
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