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आज के परिवेश का उपन्यास
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भूमिका
साहित्यिक विधाओं में उपन्यास लेखन की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। वैसे तो हिन्दी उपन्यास के विकास का श्रेय अंग्रेजी और बांग्ला उपन्यासों को दिया जाता है, जिनसे प्रेरित होकर हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकारों ने इस विधा में साहित्य सृजन किया और अपार लोकप्रियता अर्जित की। इस कड़ी में श्रीनिवास दास द्वारा लिखित हिंदी के 'परीक्षा गुरू' (1882) से लेकर सुधीर भाई के 'वैकेन्सी' तक विपुल औपन्यासिक सृजन हुआ है। किसी के जीवन का सांगोपांग वर्णन के लिए प्रेमचंद का 'गोदान' हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कृति है तथापि उनके पूर्व और अनंतर अनेकानेक लेखकों ने इस विधा की लोकप्रियता से आकर्षित होकर अमूल्य साहित्य सृजन किया है।
सुधीर भाई हमारे सामने एक नवोदित उपन्यासकार के रूप में उपस्थित हैं। लेखक का पहला उपन्यास होने के बावजूद 'वैकेन्सी' यह तस्दीक कराता है कि लेखक ने बड़े मनोयोग से काम किया है। यह प्रायः देखा गया है कि व्यक्ति जिससे बचना चाहता है अक्सर उसे जीवन की वही राह चुननी पड़ती है। यह द्वन्व् उसके साथ निरंतर चलता रहता है, वास्तव में जीवन भी तो द्वन्द्वों का समुच्चय ही है।
इंजीनियरिंग जैसे शुष्क पेशे से सम्बद्ध सुधीर भाई के हृदय में साहित्य की अविरल सरिता के प्रवाह को देखकर आश्चर्य मिश्रित सुखद अहसास का होना स्वाभाविक ही है। प्रायः इस तरह की संस्थाओं से संबद्ध लोगों का रुझान अक्सर मुद्रा अर्जन में ही होता है, क्योंकि इस लाइन में इसी सोच के लोग अक्सर जाते हैं, इसके इतर साहित्य में रुझान होना एक शुभ संकेत है। मेरा अपना मानना है कि साहित्यकार अवगुणों से रहित होता है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सुधीर भाई मेरे अनुसार भले आदमी हैं। मेरी उनकी अभी प्रत्यक्ष रूप में केवल एक ही मुलाकात है पर किसी को समझने के लिए एक मुलाकात कम नहीं होती है। जैसाकि उन्होंने बताया कि उन्होंने 2002 में बी.टेक. करने के बाद एल.एम.एल. आदि कई जगह काम करने के बाद 2012 में एम.एल.डी. एग्रो फर्म की स्थापना कर स्वरोजगार में संलग्न हो गये।
लेखक के अनुसार 'करोना' महामारी का आना तथा 2016 में नोटबंदी के प्रभाव ने व्यापार को बुरी तरह से प्रभावित किया। चूँकि लेखक भी व्यापार कर रहा था वह भी प्रभावित हुआ, तमाम संस्थानों में छटनी हुई, जनता बुरी तरह प्रभवित हुई, इन घटनाओं से सुधीर भाई के अंतस में छुपा लेखक जागा और उसके तमाम अनुभवों की नींव के आधार पर वो उपन्यास रच देतें है। अपने आत्मकथ्य में लेखक कहता है, 'वैकेन्सी वर्ष 2016 से 2019 के बीच सरकारी नौकरी की तलाश में एक शिक्षित युवा की कहानी है...।'
अमूमन जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में परिवार का मुखिया परिवार का बोझ ढोने में असमर्थ होने लगता है तो वह यह चाहने लगता है कि परिवार का कोई सदस्य उसका हाथ बटाए, जब तक कोई सदस्य इस लायक नहीं हो जाता है वह अपना गुस्सा परिवार के किसी सदस्य के ऊपर उतारता है। 'वैकेन्सी' में परिवार का मुखिया मुन्नूबाबू अपने बेकार शिक्षित बेटे विकास जो नौकरी पाने का अथक प्रयास करता है पर नौकरी न मिलने के कारण उसके ऊपर अपनी भड़ास निकालते हैं 'तुम किसी लायक नहीं हो, चपरासी ही बनोगे एक दिन, कोई काम तो ठीक से करना ही नहीं आता।' यह हर आम मध्यमवर्गीय परिवारों की समस्या है, घर का मुखिया चाहता है उसके लड़के को शिक्षा समाप्त करते ही उसे तुरंत नौकरी मिल जाय यदि नहीं मिलती है तो यह उनको केवल लड़के का नकारापन ही दिखता है, उनका ध्यान लड़के की मजबूरी की तरफ नहीं जाता है। उपन्यास में विकास की नौकरी पाने की जद्दोजहद का बहुत सुन्दर वर्णन किया है लगता है कि उसने अपने संघर्ष का ही चित्रण कर दिया है। लेखक की दृष्टि बहुत पैनी है उससे बेकारी के समय को भी कैश करने की लोगों की मानसिकता भी नहीं बच पाई है। तरह-तरह की नौकरियाँ दिलवाने वाली जाने कितनी संस्थाएँ बन गईं हैं जो बेकार युवकों को अपने-अपने ढंग से ठगती हैं। ऐसा ही एक किरदार है चमन सेठ जो सरकारी नौकरियाँ दिलवाने के नाम पर युवकों को ठगता है। इसको आज भी देखा जा सकता है। विकास का संघर्ष इस उपन्यास की जान है, काफी संघर्ष के बाद एक प्राइवेट कंपनी में जॉब मिलना फिर लक्ष्य न प्राप्त करने पर उसे नौकरी से निकाला जाना और फिर बेकारी की समस्या से जूझना और अन्त में एक चुनौतीपूर्ण जीवन को चुनना उपन्यास को रोचक बनाते हैं।
लेखक ने अपने कालखण्ड में घटित हर घटना को समेटने की कोशिश की है। नोटबन्दी के दौरान बैंकों से नोट बदलने का बहुत सही वर्णन किया है। सरकारी नीतियों के कारण व्यापार में आईं परेशानियों को भी बहुत सुंदर ढंग से उकेरा है।
सुधीर भाई के इस पहले उपन्यास से यह आश्वस्ति मिलती है कि भविष्य में उनसे और अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी। उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ...
जयराम सिंह गौर
मो. 09451547042, 7355744763
ईमेल : jairamsinghgaur@gmail.com
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